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________________ -८३] ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा अथ गाथाषट्रेनाशुचित्वानुप्रेक्षा सूचयति सयल-कुहियाण पिंड किमि-कुल-कलियं अउव-दुग्गंधं । मल-मुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुइमयं ॥ ८३ ॥ [छाया-सकलकुथितानां पिण्डं कृमिकुलकलितमपूर्वदुर्गन्धम्। मलमूत्राणां च गेहं देहं जानीहि अशुचिमयम् ॥] जानीहि त्वं. हे भव्य प्रतीहि । कम् । देहं शरीरम् । किंभूतम् । अशुचिमय अपवित्रद्रव्यनिष्पादितम् । कीदृक्षम् । सकलकुथिताना पिण्डं समस्तकुत्सितानां द्रव्याणां निचयम् । पुनः कीदृक्षम् । क्रिमिकुलकलितं, क्रिमयः जठ जीवाः जन्तवः यूकादयः निगोदादयः तेषां कुलानि वृन्दानि तेः कलितं युक्तम् । अतीवदुर्गन्धम् । मलमूत्राणां गृई.मला विष्ठादयः मूत्राणि प्रनवादयस्तेषां गृहं स्थानम् ॥ तथा श्रीभगवत्याराधनायां शरीरस्य निष्पत्त्यादिकं प्रोकं च। तद्यथा। 'कलिल १० कलुष १० स्थिरत्वं १० पृथग्दशाहेन बुद्बुदोऽथ घनः । तदनु ततः पलपेश्यः क्रमेण मासेन पुलकमतः ॥१॥'चर्मनखरोमसिद्धेः स्यादङ्गोपाङ्गसिद्धिश्च । स्पन्दनमष्टममासे-नवमे दशमेऽथ निस्सरणम्॥२॥ कलिलं दिन १०, कलुषीकृतं (दिन १०) पांशुरससदृशं दिन १०, स्थिरभूतं दिन १०, मास १ । बुद्बुदभूतं मास ११ धनभूतं मास १॥ मांसपेशी मास १ । पञ्चपुलकानि मास १ । अङ्गोपाङ्गानि मास १ । चर्मनखरोमनिष्पत्तिः मास १ । चलनम् । मासे नवम निर्गमनम् ॥ शरीरस्य अवयवानाचष्टे । त्रिशतानि अस्थीनि ३००, तानि सर्वाणि मज्जाधातुभिर्भूतानि । तावन्ति संधयः ३०० । स्नायूनां नवशतानि ९०० ।.शिराणां सप्तशतानि ७०० । पञ्चशतानि मांसपेश्यः ५०० । चत्वारि शिराजालानि ४ । षोडशखण्डसंज्ञानि १६ । शिरामूलानि षडेव ६ । मांसरजुद्वयं २ । त्वचः सप्त ७ । कालेयानि सप्त ७ । रोमकोटीनामशीतिशतसहस्राणि ८०००००००००००० । आमाशये अवस्थिता अन्त्रयष्टयः षोडश १६ । आत्माके भिन्न चिन्तन करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । अन्यत्वका चिन्तन करते हुए भी यदि यथार्थमें मेदज्ञान न हुआ तो वह चिन्तन कार्यकारी नहीं है ॥ ८२ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥५॥ छह गाथाओंसे अशुचित्वअनुप्रेक्षाका सूचन करते हैं। अर्थ-इस शरीरको अपवित्र द्रव्योंसे बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओंका समूह है। उदरमें उत्पन्न होनेवाले दोइन्द्रिय लट, जूं तथा निगोदियाजीवोंके समूहसे भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमय है, तथा मल और मूत्रका घर है ॥ भावार्थ-श्रीभगवतीआराधनामें गाथा १००७ से शरीरकी उत्पत्ति वगैरह इस प्रकार बतलाई है-"गर्भमें दस दिनतक वीर्य कलल अवस्थामें रहता है। अर्थात् गले हुए ताम्बे और चाँदीको परस्परमें मिलानेसे उन दोनोंकी जो अवस्था होती है, वैसी ही अवस्था माताके रज और पिताके वीर्यके मिलनेसे होती है । उसे ही कलल अवस्था कहते हैं। उसके पश्चात् दस दिनतक वह काला रहता है। उसके पश्चात् दस दिनतक स्थिर रहता है । इस प्रकार प्रथम मासमें रज और वीर्यके मिलनेसे ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। दूसरे मासमें बुलबुलेकी तरह रहता है । तीसरे मासमें कड़ा होजाता है । चौथे मासमें मांसका पिण्ड होजाता है । पाँचवें मासमें हाथ, पैर और सिरके स्थानमें पाँच अङ्कर फूटते हैं । छठे मासमें अङ्ग और उपाङ्ग बन जाते हैं । सातवें मासमें चमड़ा, रोम और नाखून बन जाते हैं । आठवें मासमें बच्चा पेटमें घूमने लगता है । नवें अथवा दसवें मासमें बाहर आजाता है ।" शरीरके अवयव इस प्रकार हैं-"इस शरीर में तीनसौ हड़ियाँ हैं । वे सभी मज्जा नामकी धातुसे भरी हुई हैं। तीन सौ ही सन्धियाँ हैं । नौसौ स्नायु हैं । सात सौ सिराएँ हैं १लम स जाणेह, ग जाणेह। २म अमुरतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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