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________________ २१ -४६] ३. संसारानुप्रेक्षा कया। तीव्रतृषया अतिदुःसहपिपासया । पुनः कीदृक्षः । तीव्रबुभुक्षादिबुभुक्षितः तीव्रतरक्षुधादिभिः क्षुधाक्रान्तः । पुनः कीदृक्षः । दहन ज्वाल्यमानः । कैः । उदरहुँताशैः जठरवैश्वानरैः ॥ ४३ ॥ एवं बहु-प्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय-जोणीसु । तत्तो णीसरिदूणं लैद्धि-अपुण्णो णरो होदि ॥४४॥ [छाया-एवं बहुप्रकार दुःखं विषहते तिर्यग्योनिषु । ततः निःसृत्य लब्ध्यपूर्णः नरः भवति ॥] तिर्यग्योनिषु विषहते क्षमते। किम् । दुःखम् । कीदृशं दुःखम् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण बहुप्रकारम् अनेकमेदभिन्नम् । नरः मनुष्यो भवति लब्ध्यपूर्णः लब्ध्यपर्याप्तकः, लब्धिः प्राप्तिः अपूर्णस्य अपर्याप्तिनासकर्मणः यस्य स तथोक्तः । किं कृत्वा । ततः तिर्यग्भ्यः निःसृत्य निर्गत्य ॥ ४४ ॥ अह गब्भे वि य जायदि तत्थ वि णिवडीकयंग-पच्चंगों। विसहदि तिवं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥ ४५ ॥ [छाया-अथ गर्भेऽपि च जायते तत्रापि निबिडीकृताङ्गप्रत्यङ्गः । विषहते तीनं दुःखं निर्गच्छन् अपि योनितः॥ अथ अथवा जायते उत्पद्यते । क । गर्भे स्त्रीणामुदरे, तत्रापि गर्भऽपि तीव्र घोरं दुःख विषहते क्षमते। कीदृक्षः सन् । निबिडीकृतानि संकुचितानि अङ्गानि नलकबाहशिरःपृष्टिनितम्बोरांसि । शेषाणि अङ्कलीनासिकादीनि प्रत्यानि यस्य स तथोक्तः, अपि पुनः, निर्गममानः निस्सरन् । कुतः । जन्मकाले योनितः स्त्रीभगात् ॥ ४५ ॥ बालो वि पियर-चत्तो पर-उच्छिद्रेण वड्डदे दुहिदो। एवं जायण-सीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥४६॥ [छाया-बालोऽपि पितृत्यक्तः परोच्छिष्टेन वर्धते दुखितः। एवं याचनशीलः गमयति कालं महादुःखम् ॥] बालोऽपि शिशुरपि दुःखितः दुःखाक्रान्तः वर्धते वृद्धिं याति । केन । परोच्छिष्टेन परभुक्तमुक्तानेन । कीदृक्षः सन् । और प्यासकी असह्य वेदना सहनी पड़ती है। जो पशु पालतू होते हैं, उन्हें तो कुछ दाना-पानी मिल भी जाता है, किन्तु जो पालतू नहीं होते, उन बेचारोंकी तो बुरी हालत होती है, वे खानेकी खोजमें इधर उधर भटकते हैं, और जहाँ किसीके चारेपर मुँह मारते हैं, वहीं उन्हें मार खानी पड़ती है ॥४३॥ अब तिर्यश्चगतिके दुःखोंका उपसंहार करते हुए सादे सोलह गाथाओंसे मनुष्यगतिका वर्णन करते हैंअर्थ-इस प्रकार तिर्यश्चयोनिमें जीव अनेक प्रकारके दुःख सहता है। वहाँसे निकलकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य होता है । [ स्त्रियोंके काँख वगैरह प्रदेशोंमें ये मनुष्य नामके प्राणी उत्पन्न होजाते हैं । इनका सम्मूर्छन जन्म होता है । तथा शरीर पर्याप्तिपूर्ण होनेसे पहले ही अन्तर्मुहूर्तकालतक जीवित रहकर मर जाते हैं) 1४४/अर्थ-अथवा यदि गर्भमें मी उत्पन्न होता है तो वहाँ भी शरीरके अङ्ग-उपाङ्ग सङ्कुचित रहते हैं, तथा योनिसे निकलते हुए भी तीव्र दुःख सहना पड़ता है ॥ भावार्थ-तिर्यञ्चयोनिसे निकलकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यपर्यायमें जन्म लेनेका कोई नियम नहीं है । यही इस गाथामें 'अह' पदसे सूचित किया गया है । यदि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य न होकर गर्भज मनुष्य होता है तो गर्भमें भी नौमास तक हाथ, पैर, सिर, अंगुली, नाक वगैरह अङ्ग-प्रत्यङ्गोंको समेटकर रहना पड़ता है, और जब बाहर आता है तो सङ्कुचित द्वारसे बाहर निकलते समय बड़ी वेदना सहनी पड़ती है ॥४५॥ अर्थ-बाल अवस्थामें ही यदि माता-पिता छोड़कर मर जाते हैं या विदेश चले जाते हैं, तो दुःखी होता हुआ दूसरोंके उच्छिष्ट १ग तीव्र विभुक्ष्यादि । २ ल म स ग णीसरिऊणं। ३ग लद्धियपुण्णो। ४ ब सम्बंगो। ५ बणिग्गयमाणो। ६ ग निवडी.'। ७ ब उच्चद्वेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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