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________________ २० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१निर्गत्य, तत्रापि तिर्यग्गतौ गर्भे, अपिशब्दात् न केवलं गर्भे, संमूर्छने छेदनादिकम् , आदिशब्दात् शीतोष्णक्षुधातृषादिकम् , दुःखं प्राप्नोति लभते ॥४०॥ तिरिएहिँ खजमाणो दुट्ठ-मणुस्सेहिँ हम्ममाणो वि। सबत्थ वि संतट्ठो भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥४१॥ [छाया-तिर्यग्भिः खाद्यमानः दुष्टमनुष्यैः हन्यमानः अपि । सर्वत्र अपि संत्रस्तः भयदुःखं विषहते भीमम् ॥] विषहते विशेषेण क्षमते। किम् । भयदुःखं भीतिकृतमसुखं सर्वत्रापि तिर्यग्गतो, जीव इत्यध्याहार्यम् , दुःखं भीमं रौद्रम् । कथंभूतो जीवः । तिर्यग्गतिखाद्यमानः व्याघ्रसिंहवृकभल्लूकमार्जारकुकुरमत्स्यादिभिः भक्ष्यमाणः, अपि पुनः, हन्यमानः मार्यमाणः । कैः । दुष्टमनुष्यैः म्लेच्छभिल्लधीवरपापिष्ठेर्मानुषैः । कीदृक्षः । सर्वत्रापि प्रदेशेषु संत्रस्तः भयभीतः॥४१॥ अण्णोण्णं खजंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥४२॥ [छाया-अन्योन्यं खादन्तः तिर्यञ्चः प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम् । मातापि यत्र भक्षति अन्यः कः तत्र रक्षति ॥] तिर्यचः एकेन्द्रियादयो जीवाः प्राप्नुवन्ति लभन्ते । किम् । दारुणं दुःखं रौद्रतरमसुखम् । कीहक्षाः। अन्योन्यं खायमानाः परस्परं भक्षयन्तः, यत्र तिर्यग्भवे मातापि, अपिशब्दात् अन्यापि, सर्पिणीमार्जारीप्रमुखवत् भक्षति खादति तत्र तिर्यग्भवे अन्यः परः मनुष्यादिः को रक्षति । न कोऽपि ॥ ४२ ॥ तिव-तिसाएँ तिसिदो तिव-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिवं पावदि दुक्खं उबर-हुयासेणं डझंतो ॥ ४३ ॥ [छाया-तीव्रतृषया तृषितः तीव्रबुभुक्षया बुभुक्षितः सन् । तीव्र प्राप्नोति दुःखम् उदरहुताशेन दह्यमानः ॥] प्राप्नोति लभते । किम् । तीव्र दुःखम् । कः । तिर्यग्जीवः इत्यध्याहार्यम् । कीदृक्षः सन् । तृषितः तृषाक्रान्तः सन् । चतुरिन्द्रिय वगैरहके सम्मूर्छन जन्म होता है और पञ्चेन्द्रियोंके सम्मुर्छन और गर्भ दोनों जन्म होते हैं । दोनों ही प्रकारके तिर्यश्चोंको छेदन-मेदनका दुख सहना पड़ता हैं । अपि शब्दसे ग्रन्थकारने यही बात प्रकट की है ॥ ४० ॥ अर्थ-अन्य तिर्यञ्च उसे खा डालते हैं । दुष्ट मनुष्य उसे मार डालते हैं। अतः सब जगहसे भयभीत हुआ प्राणी भयके भयानक दःखको सहता है | भावार्थतिर्यश्चगतिमें भी जीवको अनेक कष्टोंका सामना करना पड़ता है | सबसे प्रथम उसे उससे बलवान व्याघ्र, सिंह, भालू, बिलाव, कुत्ता, मगर-मच्छ वगैरह हिंस्र जन्तु ही खा डालते हैं । यदि किसी प्रकार उनसे बच जाता है, तो म्लेच्छ, भील, धीवर आदि हिंसक मनुष्य उसे मार डालते हैं। अतः बेचारा रात-दिन भयका मारा मरा जाता है ॥ ४१ ॥ अर्थ-तिर्यश्च परस्परमें ही एक दूसरेको खाजाते हैं, अतः दारुण दुःख पाते हैं । जहाँ माता ही भक्षक है, वहाँ दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ॥ भावार्थ-'जीव जीवका भक्षक है'. यह कहावत तिर्यञ्चजातिमें अक्षरशः घटित होती है । क्योंकि पृथ्वीपर वनराज सिंह वनवासी पशुओंसे अपनी भूख मिटाता है, आकाशमें गिद्ध चील वगैरह उड़ते हुए पक्षियोंको झपटकर पकड़ लेते है, जलमें बड़े बड़े मच्छ छोटी-मोटी मछलियोंको अपने पेटमें रख लेते हैं। अधिक क्या, सर्पिणी, बिल्ली वगैरह अपने बच्चोंको ही खा डालती हैं । अतः पशुगतिमें यह एक बड़ा भारी दुःख है ॥४२॥ अर्थ-तिर्यञ्च जीव तीव्र प्याससे प्यासा होकर और तीव्र भूखसे भूखा होकर पेटकी आगसे जलता हुआ बड़ा कष्ट पाता है | भावार्थ-तिर्यश्चगतिमें भूख १म भयचक्कं । २[तिर्यग्भिः खाद्यमानः]। ३ ल म स ग अण्णुण्णं । ४ग भिख्खदि यण्णो। ५बतिसाद ६ ग उबर । ७ ल म स ग हुयासेहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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