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________________ -२२] १. अनित्यानुप्रेक्षा जल-बुब्बुय-सारिच्छं धण-जोवण-जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो वि णिचं अइ-बलिओ मोह-माहप्पो ॥ २१ ॥ [छाया-जलबुद्धदसदृशं धनयौवनजीवितमपि पश्यन्तः। मन्यन्ते तथापि नित्यमतिबलिष्ठं मोहमाहात्म्यम् ॥] तो वि तथापि मनुते जानन्ति । किम् । धनयौवनजीवितमपि नित्यं शाश्वतम् । कीदृक्षाः सन्तः । प्रेक्षमाणा अव. लोकयन्तः । किम् । धनयौवनजीवितं जलबुद्बुदसदृशम् अम्भोगतबुद्बुदसमानम् । एतत्सर्व अतिबलिष्ठम् अतिपराक्रमयुक्त मोहमाहात्म्यं मोहनीयकर्मणः सामर्थ्यम् ॥ २१ ॥ चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सवे । णिविसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ॥ २२ ॥ [छाया-त्यक्त्वा महामोहं विषयान् ज्ञात्वा भडरान् सर्वान् । निर्विषयं कुरुत मनः येन सुखमुत्तमं लभध्वे ॥] कुणह कुरुष्व त्वं विधेहि निर्विषयं विषयातीतम् । किम् । मनः चित्तं, येन मनोवशीकरणेन लभख प्राप्नुहि । किम् । उत्तम सर्वोत्कृष्टं सुखं सिद्धसुखम् । किं कृत्वा । श्रुत्वा आकये । कान् । सर्वान् समस्तान् विषयान् इन्द्रियगोचरान् भडरान् विनश्वरान् । पुनः किं कृत्वा । चइऊण त्यक्त्वा विहाय । कम् । महामोहं महान् समर्थः स चासौ मोहश्च ममत्वपरिणामः [तम् ] | माहप्पं माहात्म्यम् ॥ २२ ॥ अर्थ-धन, यौवन और जीवनको जलके बुलबुलेके समान देखते हुए मी लोग उन्हें नित्य मानते हैं । मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान् है ॥ भावार्थ-सब जानते हैं कि धन सदा नहीं रहता है, क्योंकि अपने जीवनमें सैकड़ों अमीरोंको गरीब होते हुए देखते हैं । सब जानते हैं, कि यौवन चार दिनकी चाँदनी है, क्योंकि जवानोंको बूढ़ा होते हुए देखते हैं । सब जानते हैं, कि जीवन क्षणभङ्गुर है, क्योंकि प्रतिदिन बहुतसे मनुष्योंको मरते देखते हैं । यह सब जानते और देखते हुए भी हमारी चेष्टाएँ बिल्कुल विपरीत देखी जाती हैं । इसका कारण यह है, कि धन वगैरहको अनित्य देखते हुए भी उन्हें हमने नित्य समझ रखा है । आँखोंसे देखते और मुखसे कहते हुए भी उनकी क्षणभङ्गुरता अभी हृदयमें नहीं समाई है । यह सब बलवान मोहकी महिमा है । उसीके कारण हम वस्तुकी ठीक ठीक स्थितिका अनुभव नहीं करते ॥ २१ ॥ अर्थ-हे भव्यजीवों ! समस्त विषयोंको क्षणभङ्गुर जानकर महामोहको त्यागो और मनको विषयोंसे रहित करो, जिससे उत्तम सुख प्राप्त हो ॥ भावार्थ-अनित्यभावनाका वर्णन करके, उसका उपसंहार करते हुए आचार्य अनित्यभावनाका फल बतलानेके बहानेसे भव्यजीवोंको उपदेश करते हैं कि हे भव्यजीवो! अनित्य-अनुप्रेक्षाका यही फल है कि संसारके विषयोंको विनाशी जानकर उनके बारेमें जो मोह है, उसे त्यागो और अपने मनसे विषयोंकी अभिलाषाको दूर करो। जबतक मनमें विषयोंकी लालसा बनी हुई है, तबतक मोहका जाल नहीं टूट सकता । और जबतक मोहका जाल छिन्न-भिन्न नहीं होता, तबतक विषयोंका वास्तविक स्वरूप अंतःकरणमें नहीं समा सकता और जबतक यह सब नहीं होता तबतक सच्चा सुख प्राप्त नहीं होसकता । अतः यदि सच्चा सुख प्राप्त करना चाहते हो तो अनित्य-अनुप्रेक्षाका आश्रय लो ॥२२॥ इति अनित्यानुप्रेक्षा ॥ १ ॥ अब नौ गाथाओंसे अशरणअनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं ३ ब पिच्छंता। ४ ल म स ग सुणिऊण । १बल स चुम्बुय, म बुबुय, ग बुन्वुय । २ ल म सग जुब्वण। ५ माहप्पं यह शब्द ऊपरकी गाथामें आया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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