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________________ जिणहरु मुणिवरु परिणवेवि जिणदासिए णिसि दिउ गिरिवरु तरु सुरहरु जलहि सिहि इय सिविणंतरु सिउ 1. किं फलु इय सिविण्यदंसणेण होस परमेसर खण 2. इय णिसुणिवि अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International [(जिण) - (हर) 2 / 1 ] ( मुणिवर) 2 / 1 (परिणव + एवि) संकृ ( जिणदासी) 3 / 1 (for) 7/1 ( दिट्ठअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (गिरिवर) 1/1 (तरु) 1 / 1 (सुरहर) 1 / 1 ( जलहि) 1 / 1 (सिहि ) 1/1 अव्यय 3.2 जिन मन्दिर मुनिवर को (इय) 2/1 स (णिसुण + इवि) संकृ [(सिविण)+(अन्तरु)] [(सिविण ) - (अन्तर) 1 / 1] (सिहअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक कहा गया For Private & Personal Use Only प्रणाम कर जिनदासी के द्वारा रात्रि में देखा गया श्रेष्ठ पर्वत · कल्पवृक्ष इन्द्र का निवास समुद्र अग्नि और स्वप्न के भीतर (क) 1 / 1 सवि क्या (फल) 1 / 1 फल ( इय) 6 / 1 स इस [ (सिविणय) 'य' स्वार्थिक- ( दंसण) 3 / 1 ] स्वप्न ( - समूह ) के दर्शन से (हो) भवि 3 / 1 अक होगा (परमेसर ) 8/1 हे परमेश्वर ( कह ) विधि 2 / 1 सक कहें (खण) 3 / 1 क्रिविअ तुरन्त इसको सुनकर 286 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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