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________________ श्री-श्रुतमुनि-विरचिता भाव-त्रिभङ्गी भावसंग्रहापरनामा। (संदष्टि-सहिता) खविदघणघाइकम्मे अरहते सुविदिदत्थणिवहे य । सिद्धद्वगुणे सिद्धे रयणत्तयसाहगे थुवे साहू ॥1॥ क्षपितघनघातिकर्मणोऽर्हतः सुविदितार्थनिवहांश्च । सिद्धाष्टगुणान् सिद्धान् रत्नत्रयसाधकान् स्तौमि साधून् ।। अन्वयार्थः- (खविदघणघाइकम्मे) घातियाकर्मो के समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है (य) और (सुविदिदत्थणिवहे) पदार्थों के समूह को अच्छी तरह जान लिया है ऐसे (अरहते) अरहंतों की (सिद्भट्ठगुणे) प्राप्त किया है आठ गुणों को जिन्होंने ऐसे सिद्धे) सिद्धों की (रयणत्तयसाहगे) रत्नत्रय के साधक (साहू) साधुओं की (थुवे) मैं स्तुति करता हूँ अर्थात् उनकी वंदना करता हूँ। इदि वंदिय पंचगुरु सरुवसिद्धत्थ भवियबोहत्थं। सुत्तुत्तं मूलुत्तरभावसरूवं पवक्खामि ॥2॥ इति वन्दित्वा पंचगुरुन् स्वरूपसिद्धार्थ भविकबोधार्थं । सूत्रोक्तं मूलोत्तरभावस्वरूपं प्रवक्ष्यामि ॥ अन्वयार्थ:- (इदि) इस प्रकार (पंचगुरू) पंच परमेष्ठियों को(वंदिय) नमस्कार करके (सरूवसिद्धत्थ) स्वरूप की सिद्धि के लिए और (मवियबोहत्थं) भव्य जीवों के ज्ञान के लिए (सुत्तुत्तं) सूत्र में कहे गये (मूलुत्तरभावसरूव) मूल उत्तर भावों के स्वरूपको (पवक्खामि) कहूँगा। भावार्थ :- इस गाथा का प्रथम पद "इदि पंचगुरू वंदिय” पूर्व की मङ्गलाचरण रूपगाथा सूत्र से सम्बन्ध रखता है पश्चात् आचार्य महाराज ने ग्रंथ करने के हेतुका प्रतिपादन किया है कहा है कि मैं जो भावों के स्वरूप का कथन करूंगा। वह निज शुद्धात्मा के स्वरूप सिद्धि में तथा जो भव्य मोक्षेच्छुक है. उन्हें भावों के यथार्थ स्वरूप के बोध में कारण होगा तथा (1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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