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________________ सातवाँ स्तबक १५९ व्यक्ति की दृष्टि में एक प्रमाण प्रमाण नहीं ही है तथा एक वस्तु का स्वरूप अनिश्चित ही है वह उचित नहीं - यदि प्रस्तुतवादी इन मान्यताओं को एकांगी अर्थ पहना कर अपनी आपत्ति प्रकट कर रहा हों । मानं तन्मानमेवेति प्रत्यक्षं लैङ्गिकं न तु । तत्तच्चेन्मानमेवेति स्यात् तद्भावादृते कथम् ॥४९७॥ सचमुच, यदि कहा जाए कि एक प्रमाण प्रमाण होता ही है तो हम उत्तर देंगे कि प्रत्यक्ष तो अनुमान नहीं होता (यद्यपि प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों प्रमाण हैं) । कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण तो है ही (भले ही वह अनुमान प्रमाण न हो) लेकिन तब हम पूछेंगे कि प्रत्यक्ष जबतक अनुमान प्रमाण भी न होता हो तब तक हम कैसे कह सकते हैं कि वह प्रमाण होता है । टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि जब ख तथा ग क के दो उप विभाग हों तब यदि कोई कहे कि एक क क होता ही है तो उसे यह भी मानना पड़ेगा कि इस क को ख तथा ग दोनों होना चाहिए । हरिभद्र के अपने मतानुसार एक क ख तथा ग में से कोई एक होने के कारण क है जबकि वह ख तथा ग में से कोई एक न होने के कारण क नहीं भी है । न स्वसत्त्वं परासत्त्वं सदसत्त्वविरोधत: । स्वसत्त्वासत्त्ववन्न्यायान्न च नास्त्येव तत्र तत् ॥ ४९८ ॥ एक वस्तु की अपनी सत्ता ही किसी दूसरी वस्तु की असत्ता नहीं, क्योंकि इस पहली वस्तु की सत्ता तथा इस दूसरी वस्तु की असत्ता उसी प्रकार युक्तित: परस्पर विरोधी होनी चाहिए जैसे कि इस पहली वस्तु की सत्ता तथा उसकी अपनी ही असत्ता परस्परविरोधी है; और न यही कहा जा सकता है कि जहाँ एक वस्तु की सत्ता रहती है वहाँ किसी दूसरी वस्तु की असत्ता नहीं रहती । टिप्पणी — हरिभद्र का आशय यह है कि 'अपने रूप वाली होना' तथा 'किसी दूसरी वस्तु के रूप वाली न होना' ये दो परस्पर भिन्न धर्म प्रत्येक वस्तु में अनिवार्यतः साथ साथ रहा करते हैं । ये धर्म परस्पर भिन्न तो इसलिए हैं कि इनमें से पहला भावरूप है और दूसरा अभावरूप, वे एक वस्तु में १. क. ख दोनों का पाठ : तदसत्त्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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