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________________ १३४ शास्त्रवार्तासमुच्चय उसका उक्त बचाव संतोषजनक नहीं । सांवृतत्वात् व्ययोत्पादौ सन्तानस्य खपुष्पवत् । न स्तस्तदधर्मत्वाच्च हेतुस्तत्प्रभवे' कुतः ॥४२७॥ क्योंकि प्रस्तुत वादी के मतानुसार क्षणपरंपरा आकाशकुसुम की भाँति एक काल्पनिक वस्तु है. इस क्षणपरंपरा की उत्पत्ति अथवा विनाश संभव नहीं दूसरे, उसके मतानुसार एक क्षणपरंपरा की उत्पत्ति इस क्षणपरंपरा का धर्म नहीं (और वह इसलिए कि एक क्षणपरंपरा धर्मों वाली नहीं हुआ करती) । ऐसी दशा में प्रस्तुत वादी का किसी व्यक्तिविशेष के सम्बन्ध में यह कहना कहाँ तक उचित है कि वह अमुक क्षणपरंपरा की उत्पत्ति का कारण है ? टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि प्रस्तुतवादी के मतानुसार एक वास्तविक वस्तु वही हो सकती है जो क्षणिक हो, लेकिन यह तथा-कथित क्षणपरंपरा कोई क्षणिक वस्तु नहीं । विसभागक्षणस्याथ जनको हिंसको न तत् । स्वतोऽपि तस्य तत्प्राप्तेर्जनकत्वाविशेषतः ॥४२८॥ फिर मारे गए प्राणी से विसदृश क्षण को (अर्थात् विसदृश क्षणपरम्परा के आद्य घटक को) जन्म देने वाले व्यक्ति को हिंसक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब तो यह प्राणी स्वयं भी अपना हिंसक कहलाया जा सकेगा और वह इसलिए कि मारा गया प्राणी स्वयं भी उक्त विसदृश क्षण को जन्म देने वाला उसी प्रकार है जैसे कि उक्त व्यक्ति। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि मृत प्राणी के अस्तित्व का अन्तिम क्षण नवोत्पन्न प्राणी के अस्तित्व के प्रथम क्षण की उत्पत्ति में उपादानकारण है (जबकि हत्यारा इस उत्पत्ति में सहकारिकारण अथवा निमित्तकारण है)। हन्म्येनमिति संक्लेशाद् हिंसकश्चेत् प्रकल्प्यते । नैवं त्वन्नीतितो यस्मादयमेव न युज्यते ॥४२९॥ कहा जा सकता है कि 'मैं इस प्राणी को मारूँ' इस प्रकार के संकल्प १. क का पाठ : सांवृत्त । २. ख का पाठ : स्तत्संभवे । ३. ख का पाठ : नैव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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