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________________ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय (कुतर्कमूलक) आपत्तियाँ तो उठाई ही जा सकेंगी कि " एक व्यक्ति एक दूसरे व्यक्ति के ज्ञान को अपने ज्ञान का विषय नहीं बना सकता ( अतः इस दूसरे व्यक्ति का ज्ञान सत्ताशून्य है ) ?? 1 १२२ युक्त्ययोगश्च योऽर्थस्य गीयते जातिवादतः । ग्राह्यादिभावद्वारेण ज्ञानवादेऽप्यसौ समः ॥ ३९०॥ और प्रस्तुत वादी जो यह थोथी आपत्ति उठाता है कि "बाह्य पदार्थों क्योंकि बाह्य पदार्थ ग्राह्य आदि रूप अनुभय इन चारों में से एक भी रूप वाले नहीं) " वह ज्ञान को एकमात्र वास्तविक सत्ता मानने वाले सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी सच है । की सत्ता स्वीकार करना युक्तिसंगत नहीं वाले नहीं (अर्थात् ग्राह्य, ग्राहक, उभय, नैकान्तग्राह्यभावं तद् ग्राहकाभावतो भुवि । ग्राहकैकान्तभावं तु ग्राह्याभावादसंगतम् ॥३९१॥ विरोधान्नोभयाकारमन्यथा तदसद् भवेत् । निःस्वभावत्वतस्तस्य सत्तैवं युज्यते कथम् ॥३९२॥ ( सचमुच, ज्ञान के संबन्ध में भी हम कह सकते हैं कि) वह केवल ग्राह्य स्वरूप नहीं क्योंकि उस दशा में वह ग्राहक स्वरूप नहीं रह सकेगा, वह केवल ग्राहक स्वरूप नहीं क्योंकि उस दशा में वह ग्राह्य स्वरूप नहीं रह सकेगा, वह ग्राह्य स्वरूप तथा ग्राहक स्वरूप दोनों नहीं क्योंकि उस दशा में उसका स्वभाव अन्तर्विरोधपूर्ण हो जाएगा, वह ग्राह्य स्वरूप तथा ग्राहक स्वरूप दोनों के अभाव वाला नहीं क्योंकि उस दशा में स्वभावशून्य होने के कारण वह सत्ताशून्य हो जाएगा । ऐसी दशा में उसकी ( अर्थात् ज्ञान की ) सत्ता स्वीकार करना कहाँ तक उचित है ? प्रकाशैकस्वभावं हि विज्ञानं तत्त्वतो मतम् । अकर्मकं तथा चैतत् स्वयमेव प्रकाशते ॥३९३॥ यथाऽऽस्ते शेत इत्यादौ विना कर्म स एव हि । तथोच्यते जगत्यस्मिंस्तथा ज्ञानमपीष्यताम् ॥३९४॥ कहा जा सकता है : " वस्तुतः ज्ञान का एकमात्र स्वरूप प्रकाशनक्रिया है; और क्योंकि यह किया अकर्मक है इसलिए हमें कहना चाहिए कि ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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