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________________ पाँचवाँ स्तबक १२१ अर्थग्रहणरूपं यत् तत् स्वसंवेद्यमिष्यते । तद्वेदने ग्रहस्तस्य ततः किं नोपपद्यते ॥३८६॥ जिस विज्ञान को प्रस्तुत वादी स्वसंवेद्य मान रहा है वही "बाह्य पदार्थों का ग्रहण" इस रूप वाला है, और ऐसी दशा में 'इस विज्ञान का ग्रहण करते समय ही बाह्य पदार्थों का ग्रहण हो' यह बात बनती क्यों नहीं (अर्थात् अवश्य बनती है) ? टिप्पणी-विज्ञानाद्वैतवादी की मान्यतानुसार हमें ज्ञान की स्वानुभूति 'केवल ज्ञान' इस रूप से होती है जबकि हरिभद्र की मान्यतानुसार हमें ज्ञान की स्वानुभूति 'बाह्यार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान' इस रूप से होती है। घटादिज्ञानमित्यादिसंवित्तेस्तत्प्रवृत्तितः । प्राप्तेरर्थक्रियायोगात् स्मृतेः कौतुकभावतः ॥३८७॥ हमारी उक्त मान्यता का आधार यह वस्तुस्थिति है कि हमें ज्ञान की अनुभूति 'घट आदि (बाह्य पदार्थों ) का ज्ञान' इस रूप से होती है, यह कि हम घट आदि की ओर अग्रसर होते हैं, यह कि हमें घट आदि की प्राप्ति होती है, यह कि हम घट आदि को काम में लाते हैं, यह कि हमें घट आदि की स्मृति होती है, यह कि हमें घट आदि को प्राप्त करने की इच्छा होती है । ज्ञानमात्रे तु विज्ञानं ज्ञानमेवेत्यदो भवेत् । प्रवृत्त्यादि ततो न स्यात् प्रसिद्ध लोकशास्त्रयोः ॥३८८॥ यदि जगत् में ज्ञान ही एक मात्र वास्तविक सत्ता हो तो हमारी जानकारी का स्वरूप 'यह (घट आदि बाह्य पदार्थ) ज्ञान ही है' ऐसा होना चाहिए, और उस दशा में उन क्रियाकलापों की ओर अभिमुख होना आदि हमारे लिए कभी संभव नहीं होना चाहिए जो कि लोक तथा शास्त्र में प्रसिद्ध हैं । तदन्यग्रहणे चास्य प्रद्वेषोऽर्थेऽनिबन्धनः । ज्ञानान्तरेऽपि सदृशं तदसंवेदनादि यत् ॥३८९॥ ___ यदि प्रस्तुतवादी यह मानने को तैयार है कि ज्ञान अपने से अतिरिक्त किसी वस्तु को अपना विषय बनाता है तो उसका बाह्य पदार्थों से शत्रुता रखना (अर्थात् उनकी सत्ता से इनकार करना) बेतुका है; क्योंकि उस दशा में भी (अर्थात् ज्ञान का विषय अबाह्य रूप होने की दशा में भी) इस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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