SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० शास्त्रवार्तासमुच्चय और जब कुछ विकल्पात्मक ज्ञान अभ्रान्त सिद्ध हो गए तब हमारी पूर्वोक्त युक्तियों से यह संभावना भी सिद्ध हो गई कि एक ही ज्ञान रूप-रूपान्तर धारण करता है। उक्त संभावना को अस्वीकार करने पर दो अन्य कठिनाईयाँ भी उठ खड़ी होती हैं-एक तो ज्ञान की उत्पत्ति उपादानकारण के बिना संभव मानने की कठिनाई और दूसरी कुछ अवाञ्छनीय निष्कर्षों को स्वीकार करने पर बाध्य होने की कठिनाई । टिप्पणी-अपनी समझ के अनुसार हरिभद्र यह दिखा ही चुके हैं कि क्षणिकवादी का मत स्वीकार करने पर किसी एक वस्तु को किसी दूसरी वस्तु का उपादान कारण मानना कैसे असंभव हो जाता हैं ? । अन्यादृशपदार्थेभ्यः स्वयमन्यादृशोऽप्ययम् । यतश्चेष्टस्ततो नास्मात् तत्रासंदिग्धनिश्चयः ॥३५४॥ और क्योंकि प्रस्तुत वादी के मतानुसार भी एक विकल्पात्मक ज्ञान के संबन्ध में यह संभव है कि वह वस्तुतः एक वस्तु को ग्रहण कराने वाला होते हुए भी (भ्रान्तिवश) किसी दूसरी वस्तु का ग्रहण करा बैठे इस प्रकार का ज्ञान उन उन वस्तुओं का स्वरूप-निश्चय (सर्वथा) असंदिग्ध भाव से कराने वाला नहीं हुआ करता । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब क्षणिकवादी यह स्वीकार करता है कि कुछ विकल्पात्मक ज्ञान मिथ्या भी हो सकते हैं तब वह यह तर्क नहीं दे सकता कि "क्षणिकवाद की सिद्धि करने वाला विकल्पात्मक ज्ञान सत्य है क्योंकि वह एक विकल्पात्मक ज्ञान है" । तत्तज्जननभावत्वे ध्रुवं तद्भावसंगतिः ।। तस्यैव भावो नान्यो यज्जन्याच्च जननं तथा ॥३५५॥ इस प्रकार जब यह निश्चय हो गया कि एक वस्तु का स्वभाव एक दूसरी वस्तु को जन्म देता हैं तब यह बात भी निश्चय रूप से सिद्ध होती है कि यह पहली वस्तु ही दूसरी वस्तु बन जाती है; यह इसलिए कि एक कारणभूत वस्तु का स्वभाव इस कारणभूत वस्तु से भिन्न नहीं तथा एक कार्यभूत वस्तु का जन्म इस कार्यभूत वस्तु से भिन्न नहीं । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र निम्नलिखित तीन वक्तव्यों की सहायता से निम्नलिखित चौथे वक्तव्य को फलित कर रहे हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy