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________________ चौथा स्तबक १०९ अपने रूप रूपान्तरों के बीच एक बने रहना है; इस प्रकार एक बना रहेना वाला ज्ञान ही हमारे लिए वह कहना संभव बनाता है कि अमुक एक ज्ञानधारा बहुत लम्बे समय तक चली । ___टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि 'अमुक ज्ञानधारा बहुत लम्बे समय तक चली' । इस प्रकार का कथन तभी सुसंगत बनता है जब ज्ञान को रूपरूपान्तर धारण करने वाला एक स्थायी तत्त्व माना जाए। . स्वसंवेदनसिद्धत्वात् न च भ्रान्तोऽयमित्यपि । कल्पना युज्यते युक्त्या सर्वभ्रान्तिप्रसंगतः ॥३५०॥ और क्योंकि उक्त प्रकार से ज्ञान का एक बने रहना हमारे निकट एक स्वानुभव सिद्ध बात है यह कल्पना करना भी युक्तसंगत नहीं कि ज्ञान का यह एक बने रहना एक भ्रान्त प्रतीति है, क्योंकि तब तो किसी भी प्रतीति को भ्रान्त कह दिया जा सकेगा । प्रदीर्घाध्यवसायेन नश्वरादिविनिश्चयः । अस्य च भ्रान्ततायां यत् तत्तथेति न युक्तिमत् ॥३५१॥ लम्बे समय तक एक ही ज्ञानधारा को प्रवाहित रखने के फलस्वरूप ही हम निश्चय कर पाते हैं कि जगत् की वस्तुएँ नश्वर आदि स्वभावों वाली हैं, ऐसी दशा में यदि हमारा उक्त ज्ञानधारा विषयक स्वानुभव एक भ्रान्ति है तो हमारा उक्त निश्चय भी युक्तिसंगत नहीं । तस्मादवश्यमेष्टव्यं विकल्पस्यापि कस्यचित् । येन केन प्रकारेण सर्वथाऽभ्रान्तरूपता ॥३५२॥ __अतः प्रस्तुतवादी को भी किन्हीं विकल्पात्मक ज्ञानों के संबंध में यह मत कैसे ही न कैसे बनाना ही पड़ेगा कि वे सर्वथा अभ्रान्त हैं । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब क्षणिकवाद की सिद्धि भी विकल्पात्मक ज्ञान की सहायता से ही संभव है तब क्षणिकवादी यह नहीं कह सकता कि सभी विकल्पात्मक ज्ञान मिथ्या हुआ करते हैं । सत्यामस्यां स्थितोऽस्माकमुक्तवत्र्याययोगतः । बोधान्वयोऽदलोत्पत्त्यभावाच्चातिप्रसंगतः ॥३५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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