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________________ १०६ शास्त्रवार्तासमुच्चय में यह वस्तुस्थिति है कि यह दूसरी वस्तु इस पहली वस्तु की अनुपस्थिति में अस्तित्व में आई (और ऐसी स्थिति में यह कहने से भी काम नहीं चलेगा कि धूम से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान वह व्यक्ति तो कर सकेगा जिसने एक धूमज्ञान के ठीक पहले अग्निज्ञान प्राप्त किया लेकिन वह व्यक्ति नहीं जिसने एक धूमज्ञान के बहुत पहले अग्निज्ञान प्राप्त किया)। अग्निज्ञानजमेतेन धूमज्ञानं स्वभावतः । तथा विकल्पकृन्नान्यदिति प्रत्युक्तमिष्यताम् ॥३४२॥ इस प्रकार इस मत का खंडन हुआ समझना चाहिए कि अग्निज्ञान से उत्पन्न होने वाला धूमज्ञान, न कि अन्य कैसा भी धूमज्ञान-यह धूम अग्निजन्य है' इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान को स्वभावतः जन्म देता है । टिप्पणी देखा जा सकता है कि क्षणिकवादी के मतानुसार अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभाव सम्बन्ध-ग्रहण का कारण एक धूमज्ञान है और इस धूमज्ञान का कारण है एक अग्निज्ञान; हरिभद्र का इसमें इतना संशोधन है कि उक्त अविनाभावसम्बन्ध-ग्रहण का कारणभूत उक्त धूमज्ञान उक्त अग्निज्ञान का रूपान्तरण है । स्पष्ट ही इस मतभेद के मूल पर वह मतभेद विद्यमान है जो क्षणिकवादी तथा हरिभद्र के बीच इस प्रश्न को लेकर है कि कार्य-कारणसम्बन्ध का सामान्य स्वरूप क्या है। अतः कथंचिदेकेन तयोरग्रहणे सति । तथाऽप्रतीतितो न्याय्यं न तथाभावकल्पनम् ॥३४३॥ अतः जब तक यह न स्वीकार किया जाए कि दो वस्तुओं को अपना विषय बनाना एक ही ज्ञान के लिए किसी न किसी प्रकार से संभव है तब तक इन वस्तुओं के बीच कार्य-कारणसम्बन्ध मानना युक्तिसंगत नहीं-क्योंकि उस दशा में तो हमें इस आशय का अनुभव ही न हो सकेगा (अर्थात् इस आशय का कि इनमें से एक वस्तु दूसरी वस्तु का कारण है-और वह इसलिए कि दो वस्तुओं को एक साथ जाने बिना यह जानना संभव नहीं कि इनमें से एक दूसरी का कारण है)। प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां हन्तैवं साध्यते कथम् । कार्यकारणता तस्मात्तद्भावादेरनिश्चयात् ॥३४४॥ १. क का पाठ : अथ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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