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________________ चौथा स्तबक १०५ रूप में परिणत नहीं हुआ तब तो प्रस्तुत वादी को मानना चाहिए कि जहाँ कोई व्यक्ति धूमज्ञान से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान सचमुच कर पाता है वहाँ (अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसंबन्ध - ग्रहण करते समय कोई धूमज्ञान एक अग्निज्ञान का रूपान्तरण हुआ करता है और इसलिए वहाँ वस्तुस्थिति यह होती है कि) कोई का ही ज्ञान अग्नि तथा धूम दोनों को ग्रहण करने वाला हुआ करता है । टिप्पणी — हरिभद्र की अपनी समझ है कि अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसंबन्ध को अपना विषय बनाने वाला ज्ञान एक अग्निज्ञान तथा एक धूमज्ञान का जोड़ मात्र नहीं, यह इसलिए कि उनकी मान्यतानुसार उक्त अविनाभाव संबन्ध - विषयक ज्ञान के स्थल में एक अग्निविषयक ज्ञान एक धूमविषयक ज्ञान के रूप में परिणत होता है । और क्योंकि क्षणिकवादी की मान्यतानुसार किसी भी वस्तु में रूपान्तरण की प्रक्रिया संभव नहीं । हरिभद्र सोचते हैं कि उसकी मान्यताएँ स्वीकार करने पर उक्त अविनाभावसंबन्ध - विषयक ज्ञान असंभव बना रहेगा । अपनी इस ज्ञान - रूपान्तरण की कल्पना के आधार पर ही हरिभद्र यह सिद्ध करना संभव मानते हैं कि उक्त अविनाभावसंबन्ध विषयक ज्ञान के स्थल में एक ही ज्ञान का विषय दो वस्तुएँ — अर्थात् अग्नि तथा धूम हैं । इस प्रकार क्षणिकवादी की यह मान्यता कि किसी वस्तु का रूपान्तरण नहीं हुआ करता तथा उसकी यह मान्यता कि किसी ज्ञान का विषय दो वस्तुएँ नहीं हुआ करतीं, हरिभद्र की दृष्टि में एक दूसरे से सम्बद्ध हो जाती हैं । तदभावेऽन्यथा भावस्तस्य सोऽस्यापि विद्यते । अनन्तरचिरातीतं तत् पुनर्वस्तुतः समम् ॥ ३४१॥ अन्यथा (अर्थात् यदि यह न माना जाएगा कि अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसंबन्ध-ग्रहण करते समय एक अग्निज्ञान ही धूमज्ञान का रूप धारण करता है तो) कहना होगा कि अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसम्बन्ध ग्रहण करते समय धूमज्ञान अग्निज्ञान की अनुपस्थिति में उत्पन्न हो रहा होता है, लेकिन अग्निज्ञान की अनुपस्थिति में धूम का ज्ञान तो उस व्यक्ति को भी हो सकता है जिसने अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसंबन्ध को कभी जाना ही नहीं ( और ऐसी दशा में प्रस्तुतवादी के मतानुसार इस व्यक्ति को भी धूम से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान हो जाना चाहिए); सचमुच, एक वस्तु एक दूसरी वस्तु की अपेक्षा निकटतम भूत में अस्तित्व में आई या सुदूर भूत में दोनों ही दशाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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