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________________ प्रात्म-अस्तित्व बौद्ध दर्शन में पुद्गल, जीव, आत्मा, सत्ता ये सब शब्द एक दूसरे के समानार्थक हैं । इन शब्दों से अभिहित पदार्थ कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। परस्पर सम्बन्ध अनेक धर्मों का सामान्य नामकरण आत्मा या पुद्गल है। बौद्ध मत में व्यवहारिक रूप से आत्मा का निषेध नहीं किया गया है, प्रत्युत पारमार्थिक रूप से ही। अर्थात् लोकव्यवहार के लिए आत्मा की सत्ता है जो रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान आदि पंच स्कन्धों का समुदाय मात्र है, परन्तु इनके अतिरिक्त प्रात्मा कोई परमार्थ भूत पदार्थ नहीं है। बुद्ध प्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता न मानते हुए भी मन और मानसिक वृत्तियों की सत्ता सर्वथा स्वीकार करते हैं। पंच स्कन्धों की व्याख्या वे इस प्रकार करते हैं (१) रूपस्कन्ध-रूप शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है। 'रूप्यन्ते एभिविषयाः' अर्थात् जिसके द्वारा विषयों का रूपण हो। दूसरी व्याख्या—'रूप्यन्ते इति रूपारिण' जो रूपित होते हों अर्थात् विषय । इस प्रकार रूपस्कन्ध विषयों के साथ संबद्ध इद्रियों तथा शरीर का वाचक है । (२) विज्ञान स्कन्ध-अहं (मैं) का ज्ञान तथा इन्द्रिय जन्य रूप रसादि का ज्ञान ये दोनों प्रवाहापन्न ज्ञान विज्ञान स्कन्ध के द्वारा वाच्य हैं । (३) वेदना स्कन्ध-बाह्य वस्तु का ज्ञान होने पर उसके संसर्ग का चित्त पर जो असर होता है वह तीन प्रकार का होता है-सुखमूलक, दुःखमूलक और असुख अदुःख मूलक । (४) संज्ञा स्कन्ध-वेदना के आधार पर जो स्पष्ट ज्ञान होता है और उसके अाधार पर जो पदार्थ का नामकरण किया जाता है, वह संज्ञा का अवबोध 'यत् किंचिदिदं' कुछ है तक ही रह जाता है, और संज्ञा में नाम जाति आदि प्रकारों तक पहुँच जाता है। (५) संस्कार--संस्कार में अनेक मानसिक प्रवृत्तियों का समावेश किया जाता है। प्रधानतया राग और द्वेष का रागादिक क्लेश, मद, मानादि उपक्लेश तथा धर्मअधर्म ये सब इस स्कन्ध के अन्तर्गत हैं। बौद्ध दर्शन की आत्मा इन्हीं पाँच स्कन्धों का संघात मात्र है । संघात का अर्थ है–समुदाय । इसी रहस्य के अनुसार बुद्ध आत्मा के विषय में हमेशा रहस्यपूर्ण उत्तर देते रहे हैं। पसेनादि नामक राजा उनसे एक बार पूछता है 3-हे तथागत ! क्या १. विज्ञानस्कन्धोऽहमित्याकारो रूपादिविषय इन्द्रियजन्यो वादण्डायमानः । २. संज्ञास्कन्धः सविकल्पप्रत्ययः संज्ञासंसर्गयोगप्रतिभासः भामती। ३. संयुत्त निकाय (Samyutta Nikaya) । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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