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________________ ७६ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान पानी का कोई असर होता है और न हवा का । अर्थात् पानी उसे आर्द्र नहीं कर सकता और हवा उसे सुखा नहीं सकती ।" "जो नहीं है वह पैदा नहीं हो सकता, जो है उसका नाश नहीं हो सकता । तत्त्वदर्शियों ने असत् और सत् का यही हार्द माना है ।" वेदों में यद्यपि पुनर्जन्म के विषय में इतने सुस्पष्ट और विकसित विचार नहीं मिलते जितने अन्यान्य वैदिक साहित्य में, तथापि वैदिक परम्परा में आस्तिकता की मूल भित्ति वेद ही है । "कृत प्रजाता कुतइयं " यह सृष्टि कहाँ से निकली, कहाँ से पैदा हुई" - इसी विचार भूमि पर आगे चलकर वैदिक ग्रास्तिकवाद विकसित हुया । 4 वैदिक परम्परा में नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, योग इन पाँच दर्शनों और इनके भेद प्रभेदों का जन्म हुआ । सभी दर्शनकारों ने वेद की दुहाई देते हुए श्रात्मा, मोक्ष, श्रादि तत्त्वों की स्वतन्त्र व्याख्याएं कीं। किसी दर्शनकार ने आत्मा को अणुमात्र और किसी ने सर्व देशव्याप्त माना । किसी ने उसे एक पृथक् सत्तावाला द्रव्य और किसी ने उसे एक व्यापक प्रखण्ड सत्ता का श्रंश । कुछ भी माना हो पुनर्जन्म, कर्म ( पुण्य, पाप ) ज्ञान, चैतन्य, अनुभूति, अमरता प्रादि विषयों पर वे यहाँ तक एक हैं कि प्रस्तुत विवेचनीय विषय में कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में नास्तिकता के सामने आस्तिकता के प्रश्न पर सब एक हैं । बौद्ध दृष्टि आत्मा के विषय में बौद्ध दर्शन एक निराली ही दृष्टि रखता है । कुछ अर्थों में वह बृहस्पति के चार्वाक दर्शन का अनुकरण करता है और कुछ अर्थों में परम आस्तिक वैदिक और जैन का । ऐसा लगता है कि अन्यान्य विषयों की तरह आत्मा व पुनर्जन्म के विषय में भी उन्होंने मध्यम मार्ग पर चलने का ही संकल्प रखा है । बुद्ध जितने श्रात्मवादी थे, उतने ही अनात्मवादी भी । वे एक ओर शाश्वत श्रात्मवाद की तीव्र आलोचना करते हैं तो दूसरी ओर कुछ भेद से आत्मा की उन समस्त स्थितियों को मान लेते हैं जो आत्मवादियों द्वारा स्वीकृत हैं । अन्ततोगत्वा असद्वाद और शून्यवाद का आग्रह रखते हुए भी वे पुण्य, पाप, पुनर्जन्म और मुक्ति को मान ही लेते हैं । अतः उन्हें आस्तिक दर्शन की श्रेणी में मान लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये । १. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ३. ऋग्वेद १०-१२२-६ । Jain Education International 2010_04 - गीता श्र० २ श्लोक २३. । - गीता अ० २ श्लोक १६ । For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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