SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में कितने वर्ण हैं ?" उत्तर मिला-"व्यवहार-नय से तो भ्रमर काला है अर्थात् एक वर्पवाला है पर निश्चय-नय की अपेक्षा से उसमें श्वेत कृष्ण, नील आदि पाँच वर्ण हैं।" इसी प्रकार राख और शुक-पिच्छिर के लिये भगवान् महावीर ने कहा"व्यवहार-नय की अपेक्षा से यह रुक्ष और नील है पर निश्चय-नय की अपेक्षा से पाँच कर्ण, दो गन्ध, पाँच रस व आठ स्पर्श वाले हैं ।" तात्पर्य यह हुआ कि वस्तु का इन्द्रिय ग्राह्य स्वरूप कुछ और होता है और वास्तविक स्वरूप कुछ और । हम बाह्य स्वरूप को देखते हैं जो इन्द्रिय ग्राह्य है। सर्वज्ञ बाह्य व आन्तरिक (नैश्चयिक) दोनों स्वरूपों को यथावत् जानते हैं व देखते हैं । सापेक्षवाद के अधिष्ठाता प्रो० अलबर्ट आइंस्टीन भी यही कहते हैं-"We can only know the relative truth, the Absolute truth is known only to the Universal observer." हम केबल आपेक्षिक सत्य को ही जान सकते हैं सम्पूर्ण सत्य तो सर्वज्ञ के द्वारा ही ज्ञात है।" स्याद्वाद में जिस प्रकार गुड, भ्रमर, राख, शुक-पिच्छि आदि के उदाहरणों से परमार्थ सत्य व व्यवहार सत्य को समझाया गया है उसी प्रकार आइंस्टीन ने भी अपने सापेक्षवाद में ऐसे उदाहरणों का प्रयोग किया है । वहाँ बताया गया है----जिस किसी घटना के बारे में हम कहते हैं कि यह घटना आज या अभी हुई; हो सकता है कि वह घटना सहस्रों वर्ष पूर्व हुई हो । जैसे-एक दूसरे से लाखों प्रकाश वर्ष की दूरी पर दो चक्करदार नीहारिकाओं (क, ख) में विस्फोट हुए और वहाँ दो नये तारे उत्पन्न हुए । इन नीहारिकाओं में उपस्थित दर्शकों के लिये अपने यहाँ की घटना तुरन्त हुई मालूम होगी, किन्तु दोनों के बीच लाखों प्रकाश वर्षों की दूरी होने से 'क' का दर्शक 'ख' की घटना को एक लाख वर्ष बाद घटित हुई कहेगा, जब कि दूसरा दर्शक अपनी घटना को तुरन्त और 'क' की घटना को एक लाख वर्ष बाद घटित होने वाली बतायेगा । इस प्रकार विस्फोट का परमार्थ काल नहीं सापेक्ष काल ही बताया जा सकता है।" १. छारियाणंभन्ते ! पुच्छा ? गोयमा ! एत्थणं दो नया भवन्ति तंजहापिच्छइयणएय, वावहारियणएय । वावहारियणयस्स लुक्खा छारिया, णेच्छइयस्स पंच वण्णे जाव अठ फासे पण्णते। __ -भगवती १८-६ । २. सुयपिच्छेण भन्ते ! कइवण्णे पण्णत्ते? एवं चेव गवरं वावहारियणयस्स पीलए सुप्रपिच्छे, णेच्छइयस्स यस्स से सन्तं चेव । -भगवती १५-६ । 3. Cosmology Old and New, p. 201. ४. विश्व की रूपरेखा, अध्याय १, पृष्ठ ६२-६३ प्र० सं । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy