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________________ १२२ उत्तम आकिञ्चन्य अवस्था में साधक अप्रमादी हो जाता है। उसके मोह के कारण विगलित हो जाते हैं, इसलिए दुःख की सारी स्थितियाँ भग्न हो जाती हैं। ममत्व के कारण दुःख आता है। जब ममत्व ही चला गया तो दुःख कहाँ से आयेगा? पर-पदार्थों से 'मेरे' का भाव यदि तिरोहित हो गया, तो दुःख का नामोनिशान नहीं रहेगा। मात्र आनन्द का प्रवाह बहेगा, यहाँ तक कि मन-विचार भी समाप्त हो जायेगा। इस अवस्था में अन्तर और बाहर समान हो जाते हैं। बाह्य आचरण अच्छा हो और अन्तर में ज्वालायें धधक रही हों तो फिर दुर्वासा ऋषि की स्थिति आ जायेगी। साधु का आचरण यदि मुखौटा हो, अन्तर नहीं बदलेगा। यही कारण है कि कभी-कभी न चाहते हुए भी हम अपशब्द निकाल देते हैं। अन्तर यदि बदल गया, शुद्ध हो गया तो बाह्य स्वतः शुद्ध हो जायेगा। यदि किसी कारणवश अशुद्ध हो भी गया तो वह क्षणिक ही रहेगा। इसलिए जैनधर्म समग्रता का पक्षधर है। अन्तर और बाहर दोनों समान रूप से शुद्ध होना चाहिए और साधक का चिन्तन अडिग होना चाहिए कि सांसारिक पदार्थों में उसका कोई राग नहीं है। आत्मधर्म के अतिरिक्त उसका और कोई तत्त्व नहीं है। यही उसका आकिंचन भाव है। सन्दर्भ .. होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं। णिदं देण दु वट्टदि अणयारो तस्सऽकिंचण्हं।। -- बा० अणु० ७९ । तिविहेण जो विवज्जदि चेयणमियरं च सव्वहा संगं। लोयववहारविरदो णिग्गंथतं हवे तस्स।। - का०अणु० ४०२। उपान्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्ति: आकिञ्चन्यम्। नास्य किञ्चनास्तीति अकिञ्चन: तस्य भाव: कर्म वा आकिञ्चन्यम् -- स०सि० ९-६; अन०१०स्वो टीका० ६.५४।। शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम्। -- त०भा० ९-६। ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम् तत्त्वार्थवा. ९.६.२१. उपानेष्वपि शरीदादिषु संस्कारापोहनं नैर्मल्यं वा आकिञ्चन्यम् - त०सुखवो, नास्ति अस्य किञ्चन किमपि अकिञ्चनो निष्परिग्रहः, तस्य भावः कर्म वा आकिञ्चन्यम्। निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसन्धिनिषेधनमित्यर्थः - त०वृत्ति०श्रुत०, ९.६. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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