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________________ १२१ को सबसे बड़ा पाप माना गया है। दसवें गुणस्थान तक परिग्रह बना रहता है। यही उसकी तीव्रता का निदर्शन है। भरत-बाहुबली का युद्ध परिग्रह का ही जनक है। संसार की इतनी माया से भी भरत को सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने अपने ही भाई बाहुबली पर आक्रमण करना चाहा। बाहुबली भी 'मैं' और 'मम' से जब तक छुटकारा नहीं पा सके तब तक उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो सका। कुछ लोग सोचते हैं अर्जन से ही विसर्जन होगा। इसलिए वे पैसा कमाने में लगे रहते हैं और फिर अपने ढंग से उसका विसर्जन करते हैं। यह बात सही है कि विसर्जन अर्जन के बिना नहीं होता। पर यह भी सही है कि अर्जन में जो मानसिक सन्ताप होता है वह विसर्जन से पूरा नहीं होता। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे पहले कीचड़ में अपने पैर खराब कर लेना और फिर उन्हें पानी से साफ करने की बात सोचना। इससे तो अच्छा यही है कि हम कीचड़ में पैर ही नहीं रखे- “प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्।” ____ तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्याय में संवर और निर्जरा तत्त्व का वर्णन मिलता है। कर्मों का संवर और उसकी निर्जरा के लिए अप्रमादी होना बहुत आवश्यक है। कहा जाता है- भारण्ड पक्षी मृत्यु से इतना भयभीत रहता है कि वह कभी सोता नहीं है। सदा उड़ता ही रहता है यह सोचकर कि यदि वह सोयेगा तो मर जायेगा। साधक भी भारण्ड पक्षी की तरह मृत्यु का चिन्तन करता है और अप्रमादी होकर, त्रिगुप्तियों और पंच समितियों का पालन कर धर्म-साधना करता है। समय की धारा निरपेक्ष रहती है। वह किसी के लिए रुकती नहीं। यदि कोई यह सोचे कि उसका मुर्गा यदि बाग नहीं देगा तो सुबह नहीं होगी, तो यह उसकी मूर्खता ही होगी। मुर्गा बाग देकर सुबह होने की सूचना तो दे सकता है, पर सुबह होने के लिए कोई रोक नहीं सकता। तीर्थङ्कर महावीर ने गौतम को अप्रमादी होने का उपदेश देकर उनके मोहभाव को कम किया। बुद्ध ने सारिपुत्र से कहा कि अब तुम मेरे प्रति भी राग छोड़ो और संसार से पार हो जाओ। यह है आकिंचन्य भाव की जागृति। यह जागृति अचेतन पदार्थ से ममत्व तोड़कर चेतन पदार्थ रूप आत्मा की साधना करने से होती है। अचेतन पदार्थ के प्रति लगाव ही हमारे दुःख का कारण है और फिर उसी दुःख में हम परमात्मा का स्मरण करते हैं। आकिंचन्य भाव में इस दुःख के मूल कारण रूप अचेतन के प्रति लगाव ही समाप्त हो जाता है। वह कमल के समान निर्लिप्त हो जाता है, वासना का दौर समाप्त हो जाता है और भीतर की ज्योति से बाहर के प्रति मोह टूट जाता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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