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________________ द्वैतवाद / १९ होना जल के होने पर निर्भर है। जल हो और तरंग न हो— ऐसा भी नहीं हो सकता । जल का होना तरंग होने के साथ जुड़ा हुआ है। जल और तरंग- दोनों एक-दूसरे में निहित हैं— जल में तरंग और तरंग में जल । पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध I द्रव्य पर्याय का आधार होता है । वह अव्यक्त होता है, पर्याप्त व्यक्त । हम द्रव्य को कहां देख पाते हैं । हम देखते हैं पर्याय को । हमारा जितना ज्ञान है, वह पर्याय का ज्ञान है । मेरे सामने एक मनुष्य है । मैं उसे नहीं जान सकता। मैं उसके अनेक पर्यायों में से एक पर्याय को जानता हूं और उसके माध्यम से यह जानता हूं कि यह मनुष्य है । जब आंख से उसे देखता हूं तो उसकी आकृति और वर्ण- इन दो पर्यायों के आधार पर उसे मनुष्य कहता हूं । कान से उसका शब्द सुनता हूं, तब उसे शब्द पर्याय के आधार पर मनुष्य कहता हूं। उसकी समग्रता को कभी नहीं पकड़ पाता । आम को कभी मैं रूप- पर्याय से जानता हूं, कभी गंध- पर्याय से और कभी रस- पर्याय से । किन्तु सब पर्यायों से एक साथ जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। आंख जब रूप को देखती है तो गंध और रस पर्याय नीचे चले जाते हैं। गंध का पर्याय जब जाना जाता है तो रूप का पर्याय नीचे चला जाता है। इस समग्रता के सम्बन्ध मैं मैं कहता हूं कि मैं द्रव्य को नहीं देखता, केवल पर्याय को देखता हूं और पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध करता हूं । 1 1 हमारा पर्याय का जगत् बहुत लम्बा-चौड़ा और द्रव्य का जगत् बहुत छोटा है। एक द्रव्य और अनन्त पर्याय । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के वलय से घिरा हुआ है । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के पटल से छिपा हुआ है। उसका बोध कर द्रव्य को देखना इन्द्रिय ज्ञान के लिए संभव नहीं है । सूक्ष्म परिवर्तनों की व्याख्या इन्द्रिय ज्ञान से नहीं 1 परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी । स्वाभाविक परिणमन अस्तित्व की आन्तरिक व्यवस्था से होता है । प्रायोगिक परिणमन दूसरे के निमित्त से घटित होता है । निमित्त मिलने पर ही परिणमन होता है, ऐसी बात नहीं है । परिणमन का क्रम निरन्तर चालू रहता है । काल उसका मुख्य हेतु है । वह (काल) प्रत्येक अस्तित्व का एक आयाम है। वह परिणमन का आन्तरिक हेतु है । इसलिए प्रत्येक अस्तित्व में व्याप्त होकर वह अस्तित्व को परिणमनशील रखता है । स्वाभाविक परिणमन सूक्ष्म होता है । वह इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता। इसलिए अस्तित्व में Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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