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________________ १८/ जैन दर्शन और अनेकान्त रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार ही नहीं हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह भी पहली बार ही नहीं हो रहा है। उसके पहले वह अनगिनत बार उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न होने पर अस्तित्व का सृजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसका विनाश नहीं हुआ। धौव्य उत्पाद और व्यय का है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आने देता। अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नहीं होती। इस बिन्दु को पकड़ने वाले 'कूटस्थ-नित्य' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। अस्तित्व के समुद्र में होने वाली ऊर्मियों को पकड़ने वाले 'क्षणिकवाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । जैन दर्शन ने इन दोनों को एक ही धारा में देखा । इसलिए उसने परिणामी-नित्वत्ववाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। भगवान् महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या परिणामी नित्यत्ववाद के आधार पर की। उनसे पूछा गया—'आत्मा नित्य है या अनित्य ! पुद्गल नित्य है या अनित्य !' उन्होंने एक ही उत्तर दिया-अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। इस अपेक्षा से वे नित्य हैं। परिणमन का क्रम कभी अवरुद्ध नहीं होता। इस दृष्टि से वे अनित्य हैं। समग्रता की भाषा में न नित्य हैं और न अनित्य, किंतु नित्यानित्य हैं। घटना के पीछे स्थायी तत्त्व तत्त्व में दो प्रकार के धर्म होते हैं-सहभावी और क्रमभावी । सहभावी धर्म तत्त्व की स्थिति और क्रमभावी धर्म उसकी गतिशीलता के सूचक होते हैं। सहभावी धर्म 'गुण' और क्रमभावी धर्म ‘पर्याय' कहलाते हैं। जैन दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है कि द्रव्यशून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य नहीं हो सकता। एक जैन मनीषि ने कूटस्थनित्यवादियों से पूछा-'पर्यायशून्य द्रव्य किसने देखा?' 'कहां देखा?' 'कब देखा?', 'किस रूप में देखा, कोई बताए तो सही। उन्होंने ऐसा ही प्रश्न क्षणिकवादियों से पूछा—'वे बताएं तो सही कि द्रव्य-शून्य पर्याय किसने देखा? कब देखा? किस रूप में देखा? अवस्थाविहीन, अवस्थावान और अवस्थावानविहीन अवस्थाएं ये दोनों तथ्य घटित नहीं हो सकते । जो घटना-क्रम चल रहा है, उसके पीछे कोई स्थायी तत्त्व है। घटना-क्रम उसी में चल रहा है। वह उससे बाहर नहीं है । तालाब में एक कंकर फेंका और तरंगें उठीं। तालाब का रूप बदल गया। जो जल शान्त था, वह क्षुब्ध हो गया, तरंगित हो गया। तरंग जल में है। जल से भिन्न तरंग का कोई अस्तित्व नहीं है। जल में तरंग उठती है इसलिए हम कह सकते हैं कि तालाब तरंगित हो गया। तरंगित होना एक घटना है। वह विशेष अवस्थावान् में घटित होती है । जलाशय नहीं है तो जल नहीं है । जल नहीं है तो तरंग नहीं है । तरंग का Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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