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________________ [ ५५ ] होता है। ग्रन्थि भेद करना कोई आसान बात नहीं है, एक महान संग्राम की तरह ग्रन्थि का ( रागद्वेषात्मक ग्रन्थि ) भेद करना एक दुरूह कार्य है। अभव्य जीव ग्रन्थि का भेदन नहीं कर सकते हैं, केवल भव्य ही ग्रन्थि के भेदन का कार्य कर सकते हैं, उनमें भी बहुत कम प्राणी सफलता को प्राप्त होते हैं, चूंकि ग्रन्थि के भेदन का कार्य अपूर्वकरण में प्रारम्भ हो जाता है। दिगम्बर ग्रन्थों में यथाप्रवृत्तिकरण के स्थान पर अधःप्रवृत्तकरण का उल्लेख मिलता है । विशेषावश्यक भाष्य में कहा है - जो पल्लेऽतिमहल्ले धगं पक्खिवइ थोवथोवयरं । सोहेइ बहुबहुतरं मिज्जइ थोवेण कालेण ।। तह कम्मधन्नपल्ले जोवोऽणाभोगओ बहुतरागं। सोहतो थोवतरं गिण्हतो पावर गंठिं॥ टीका-यथा कश्चित् कुटुम्बिकोऽतिमहति धान्यभृतपल्ये कदाचित कथमपि स्तोकस्तोकतरमन्यद, धान्यं प्रक्षिपति बहुतरं तु शोधयति - गृहव्ययाद्यर्थं ततस्तत् समाकर्षति। एवं च सति क्रमशो गच्छता कालेन तस्य धान्यं क्षीयते । प्रस्तुते योजयति 'तहे' त्यादि तथा तेनैव प्रकारेण कमैव धान्यभृतपल्यः कर्मधान्यपल्यः, तत्र कर्मधान्यपल्ये, चिरसंचित. प्रचुरकर्मणीत्यर्थः, कुटुम्बिकस्थानीयो जीवः कदाचित् कथमप्येवमेवाऽनाभोगतो बहुतरं चिरबद्ध कर्म शोधयन क्षपयन , स्तोकतरं तु नूतन गृहणानो वध्नन प्रन्थिं यावत् प्राप्नोति-देशोनकोटीकोटिशेषाण्यायुर्वर्जसप्तकर्माणि धृत्वा शेषं तत् कर्म क्षपयतीत्यर्थः एष यथाप्रवृत्तकरणस्य व्यापार इति । --विशेभा • गा १२०५-६ जिस प्रकार कोई कुटुम्बिक धाग्य से भरी हुई कोठी में से थोड़ा-थोड़ा धान्य गिराता है तथा बहु-बहुतर धान्य गृहव्यवहारार्थ उसमें से बाहर निकलता है। ऐसा करने से भरी हुई कोठी उत्तरोत्तर धान्य से क्षीणता को प्राप्त होती है, उसी प्रकार चिर संचित कर्म धान्य के पल्य से आत्मा--जीव-किसी प्रकार से-अनाभोग से बहुत-से कर्मो का क्षय करने से तथा नवीन थोड़ा कर्म के Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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