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________________ [ ५४ ] गुण विशुद्धि होती जाती है। इसका कालमान अन्तमुहूंत का है । कर्म प्रकृति में शिवशर्मसूरि ने कहा है ठिइंसत्तकम्म अंतो कोडी-कोडी करेत्त सत्तण्हं । दुट्ठाणं चटाणं असुभसुभाणं च अणुभागं ॥ -कर्म प्रकृति भाग ६। गा ५ अर्थात स्थितिघात आदि क्रियाओं के लिए कोई स्थान न होते हुए भी बन्धन द्विस्थानक रस से होता है और प्रतिसमय अनन्त गुण न्यून होता चला जाता है । अध्यात्म विकास के क्षेत्र में यह करण अत्यन्त महत्व का है। कहीं-कहीं यथाप्रवृत्तिकरण को पूर्वप्रवृत्तिकरण भी कहा गया है क्योंकि यह करण सबसे पहला करण है। इसके बाद का करण अपूर्व करण है जो कि यथाप्रवृतकरण को प्राप्त किये बिना प्राप्त नहीं होता । यह करण स्वभाव से कर्मों के हल्केपन से प्राप्त होता है जैसा कि युगप्रधान आचार्य तुलसो ने जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा है तत्रग्नाद्यनन्तसंसारपरिवर्ती प्राणी गिरिसरिद् ग्रावघोलनान्यायेन आयुर्वर्जसप्तकर्मस्थितौ किंचिन्न्यूनककोटाकोटिसागरोपममितायां जातायां येनाध्यवसायेन दुर्भद्यरागद्वेषात्मकमाथिसमीपं गच्छति स यथाप्रवृत्तिकरणम् । एतद्धिभन्यानामभव्यानां चानेकशोभवति । -प्रकाश ५ । सू ८ टीका अर्थात् अनादि अनन्त संसार में परिभ्रमण करने वाले प्राणो के गिरि सरित् ग्राव घोलना न्याय ( अर्थात पर्वत सरिताओं की चट्टानें जल के आवर्तन से घिसघिस कर चिकनी हो जाती हैं, उसको गिरिसरित ग्राव घोलना न्याय' कहते हैं ) के अनुसार आयुष्यवर्जित सात कर्मों की स्थिति कुछ कम एक कोडाको सागर परिमित होती है तब वह जिस परिणाम से दुर्भध रागद्वषात्मक ग्रन्थि के पास पहुँचता है, उसको यथावृत्तिकरण कहते हैं। वह करण भव्य एवं अभव्य दोनों को अनेक बार आता है। - अस्तु मिथ्यात्वी के यथाप्रवृत्तिकरण असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश जितने परिणाम हैं। उन परिणामों में क्रमशः विशुद्धि होती जाती है। यथाप्रवृत्तिकरण में विचारों की शक्तियों बिखरी हुई होती हैं, अतः ग्रन्थि भेद का कार्य चालू नहीं Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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