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________________ २१२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अनुभागघात, गुणसंक्रमण और गुण श्रेणी कहा जाता है, इनका निर्देशन त्रिविध करणमें किया गया है। इस गुणस्थानमें जीव कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । क्षपक श्रेणी वाला जीव अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता इस गुणस्थानकी तुलना बौद्धमान्य सकृदागामी भूमिसे की जा सकती है, जहाँ साधक मोह, राग, द्वेषको समाप्त प्राय: कर देता है और अनागामी भूमिकी ओर अग्रसर होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा नामक किंचित् कषायोंका और निद्रा, प्रचला नामक मन्द दर्शनावरण का तथा अन्य अनेक कर्मों का बन्ध इस गुणस्थानसे आगे नहीं होता। ९. अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय गुणस्थान वीरसेन स्वामीने नवम गुणस्थानका लक्षण करते हुए कहा है- “निवृत्ति: व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां ते अनिवृत्तयः । साम्पराया: कषाया: बादरा: स्थूला: बादराश्च ते साम्परायाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्पराया: ।५ अर्थात् जिन परिणामोंकी निवृत्ति नहीं होती, उन्हें अनिवृत्ति और स्थूल कषायोंको बादर साम्पराय कहते हैं । इस प्रकार अनिवृत्तिरूप स्थूल कषायोंको अनिवृत्तिबादर साम्पराय कहते हैं । इस गुणस्थानवी जीव, संज्वलन नामक मन्द कषायोंका स्थूल रूप से उपशमन या क्षय करते हैं, इसीलिए इसे बादर साम्पराय कहा गया है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा गया है होंति अणियटिणोते पडिसमयं जस्सि एक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुतवहसिहा हि णिद्दड़ढ-कम्मवणा॥ एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में विशद्धिकी अपेक्षा किसी प्रकारका भेद नहीं होता, ऐसे अनिवृत्तिकरण परिणाम वाले जीव, विमलतर ध्यान रूपी अग्निकी शिखाओंसे कर्मरूपी वनको दग्ध कर देते हैं। उनकी ध्यानरूपी अग्नि में तीनों प्रकारके वेद (पुरुष, स्त्री, नपुंसक) और क्रोध, मान, माया तथा स्थूल लोभका पूर्ण रूपेण क्षय अथवा उपशमन हो जाता है । अर्थात् इस गुणस्थानसे आगे सूक्ष्मलोभको छोड़कर वेद और संज्वलनकी चारों कषायोंका बन्ध नहीं होता।" १. पूर्वानिर्दिष्ट, करणलब्धि, त्रिविधकरण २. जैन एथिक्स, पृ० २१६ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्तएक अध्ययन पृ० १०० वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन,नं०३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ९८ धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १७, पृ० १८३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५७ ७. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९९ سه م م م م Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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