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________________ २११ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था ख. क्षपक श्रेणी क्षपक श्रेणीकी परिभाषा करते हुए राजवार्तिककारने कहा है. “यत्र तत् (मोहनीय) क्षयमुपगमयन् (आत्मा) उद्गच्छति सा क्षपक श्रेणी" अर्थात् जब आत्मा चारित्र मोहनीय कर्मको समूल नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है तब उसे क्षपक श्रेणी वाला कहा जाता है। इसमें कर्मशत्रुओंको अवरुद्ध नहीं किया जाता अथवा दबाया नहीं जाता अपितु विध्वंस कर दिया जाता है। इसी कारण वे पुन: जागृत होने में समर्थ नहीं होते। क्षपक श्रेणी द्वारा अवरोहण करने वाला आत्मा, विकास करता हुआ समस्त कर्मों का नाश करके अन्तिम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है। एक आत्मा, एक जीवनमें दोनों श्रेणियोंमें से एक श्रेणीसे ही चढ़ सकता है। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान अष्टम गुणस्थानमें आकर जीव उपरोक्त निर्दिष्ट उपशम या क्षपक श्रेणियों में से किसी एक श्रेणीको अपनाता है। यह आत्माकी एक विशिष्ट अवस्था है, जिसमें कर्मावरण अत्यधिक झीने हो जाते हैं । कर्मावरणके मन्द हो जानेसे जीवको असीम आनन्द की अनुभूति होती है, जो इससे पूर्व कभी नहीं हुई थी। इस अपूर्व आनन्दके कारण ही इस गुणस्थानको अपूर्वकरण कहा जाता है । वीरसेन स्वामी ने कहा है “करणा: परिणामा: न पूर्वा: अपूर्वा: । यद्यपि प्रथम गुणस्थानमें दर्शन मोहकी ग्रन्थि भेदके समय होने वाले परिणामों को भी अपूर्व कहा जाता है, परन्तु यहाँ चारित्र मोहके आवरणभी दूर हो जाते हैं, इस कारण इस गुणस्थानमें मात्र मन्द कषाय (संज्वलन) ही शेष रहते हैं। अन्य कषायों को उपशमश्रेणी वाला जीव उपशमित कर देता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव क्षय कर देता है। चारित्र मोहके आवरणके अत्यन्त मन्द हो जानेसे आत्मामें एक विशिष्ट प्रकारकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है । उस शक्तिके फलस्वरूप पूर्वबद्धकों की स्थिति (काल) और अनुभाग (तीव्रता) बहुत अधिक मात्रा में कम हो जाता है। अशुभ फल देने वाले कर्मों का फल अतिमन्द हो जाता है और समयसे पूर्व ही कर्मों के फलको भोग लिया जाता है। इसे जैन पारिभाषिक शब्दावलीमें स्थितिघात, १. तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, वार्तिक १८, पृ० ५९० २. गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०७३ ३. षखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १६, पृ० १८० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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