SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १५९ होता है। . इस प्रकार कर्मबन्धमें विभिन्न कर्म प्रकृतियों में प्रदेशों की हीनाधिकताको दर्शाने के लिए ही प्रदेश बन्धका सूक्ष्म विवेचन किया गया है । निष्कर्ष उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय ये पांच कर्मबन्धके कारण होते हैं। इन भाव कर्मों के निमित्त से ही ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का आगमन होता रहता है । जीवकी प्रत्येक क्रियामें ये कर्म छिपे होते हैं, इसी कारण पूर्व कर्म फलोन्मुख होकर जीव से पृथक हो जाते हैं। बन्धको प्राप्त कर्म केवल एक प्रकारका ही नहीं होता, जिस प्रकार खाया हुआ भोजन पच जानेपर रक्त, मांस आदि अनेकविध रूपों में बदल जाता है, उसी प्रकार बन्धको प्राप्त कर्मों का स्वभाव भी अनेक प्रकारका हो जाता है। कुछ कर्म ज्ञानपर आवरण डालते हैं और कुछ अवलोकन शक्तिपर, कुछ कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंको नष्ट कर डालते हैं और कुछ कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंको नष्ट न करते हुए भी शरीर, आयु, गोत्र आदि स्थूल रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं। उपरोक्त निर्दिष्ट कर्म की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ दु:ख रूप होती हैं, और कुछ सुख रूप, कुछ पाप रूप होती हैं और कुछ पुण्य रूप । इस प्रकार से कर्मबन्धके स्वभावका सूक्ष्मतम विश्लेषण जैन दर्शनमें ही किया गया है । जैन दर्शनमें कर्म के स्वभावकी व्याख्या करने वाली कर्म प्रकृतियों का अत्यधिक विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है । जैन मान्य सम्पूर्ण कर्म सिद्धान्त, इन प्रकृतियोंको केन्द्र मानकर ही समस्त व्याख्याओं को प्रस्तुत करता है । इन प्रकृतियों के आधार पर ही पूर्व अध्याय में निर्दिष्ट, कर्म की बन्ध, उदय, सत्ता, उदीरणा आदि विविध अवस्थाओं का, संसार के प्रत्येक जीवकी दृष्टिसे, सूक्ष्मतम रूपमें कथन किया गया है और अग्रिम अध्यायमें निर्दिष्ट कर्म मुक्ति के मार्ग तथा गुणस्थान सम्बन्धी सम्पूर्ण धारणा इन कर्म प्रकृतियोंपर ही केन्द्रित है। जिस प्रकार केन्द्रकी कीली निकाल देने से चक्र अस्त व्यस्त हो जाता है, उसी प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त द्वारा मान्य, इन कर्म प्रकृतियों की उपेक्षा कर देने पर, जैन मान्य नैतिकता आदि के अन्य सभी सिद्धान्त भी छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। कर्मसिद्धान्त, कर्मबद्ध संसारी जीवों पर ही लागु होता है, इसी कारण कर्म सिद्धान्तसे सम्बन्धित अन्य गुणस्थान आदिकी व्यवस्था भी संसारी जीवों पर ही लाग होती है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy