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________________ १५८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ___एक समयमें जितने कर्म प्रदेशजीवके साथ संयुक्त होते हैं, उससंख्याको एकसमय प्रबद्ध कहा जाता है। पंच संग्रहके अनुसार एक जीव पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श रूपमें परिणत पुद्गल परमाणुओंको एक समयमें ग्रहण करता है।' जीवके भावोंका निमित्त पाकर प्रतिसमय जितने परमाणुस्वयं कर्म रूपमें परिणत होते हैं उनका अष्ट मूल प्रकृतियोंमें हीनाधिक रूपसे विभाजन हो जाता है। मूल प्रकृतियोंमें आयु कर्मके प्रदेश सबसे अल्प मात्रामें होते हैं, नाम और गोत्र कर्मका भाग आयु कर्मसे अधिक होता है, परन्तु परस्पर में समान होता है। नाम और गोत्रसे अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका होता है । इन तीनोंके प्रदेश परस्पर समान मात्रामें होते हैं। इन तीनोंसे भी अधिक भाग मोहनीय कर्मका होता है। मोहनीय कर्मसे भी अधिक भाग वेदनीयका होता है क्योंकि वेदनीय कर्म सुख दु:ख का निमित्त होता है । यह प्रतिक्षण निर्जीर्ण होता रहता है। शेष सात कर्मों के प्रदेश बन्धकी हीनाधिकता स्थिति बन्ध के समान ही है। उत्तर प्रकृतियों में प्रदेश बन्धका विभक्तीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशों की मात्रा क्रमश: हीन होती जाती है । जैसे ज्ञानावरणीय कर्ममें मतिज्ञानावरणके सबसे अधिक कर्म प्रदेश होते हैं, श्रुतज्ञानावरण आदि के क्रमश: उससे हीन होते जोते हैं। इसी प्रकार दर्शनावरण और मोहनीय के कर्म प्रदेश भी क्रमश: हीन होते जाते है | नामकर्म और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशों की मात्रा क्रमश: बढ़ती जाती है क्योंकि दानान्तरायमें सबसे हीन और वीर्यान्तरायमें सबसे अधिक प्रदेशोंकी.मात्रा होती है । वेदनीय, गोत्र और आयु कर्म के प्रदेश उत्तरप्रकृतियों में विभक्त नहीं होते, क्योंकि एक समयमें साता या असातामें से एक ही वेदनीय कर्म, उच्च और नीचमें से एक ही गोत्र कर्म, और चार आयुमें से एक समयमें एक ही आयुकर्मका बन्ध १. पंच संग्रह प्राकृत, अधिकार ४, गाथा ४९५ २. आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो। घादितिये विय तत्तो मोहे तत्तोतदो तदिए । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १९२ ३. सुहृदुक्खणिमित्ता दोवहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स। सव्वेहितो बहुगं दव्वं होदित्ति णिदिळें ।। वही, गाथा १९३ ४. उत्तरपयड़ीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा। अहियकमा पुणणामा विग्धा यणभंजण सेंसे गोम्मटसार कर्मकाण्ड. गाथा १९६ oc Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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