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________________ वह शत प्रतिशत प्रमाणित है और दूंढक मत सम्मूर्छिम है, जिसका भगवान महावीर स्वामीजीकी पट्ट परंपरामें कोई स्थान नहीं हैं। इस यात्रामें यह भी अनुभूत हुआ कि तत्कालीन समाजमें संविज्ञ शाखीय साधु पीली चद्दर ही पहनते हैं। श्वेत चद्दरधारीको साधु नहीं लेकिन शिथिलाचारी और परिग्रहधारी यति माने जाते हैं। अतः आपने भी अपनी चद्दर पीली बना ली। संवेगी दीक्षाग्रहण---(श्री बुद्धिविजयजी म.सा.का शिष्यत्व अंगीकार)-अहमदाबादमें पदार्पण पश्चात् तुरंत ही दूसरा ध्येय-संविज्ञ सद्गुरुसे शिष्यत्व स्वीकार करनेकी-ओर ध्यान केन्द्रित किया और सर्वानुमतसे, अपने सदृश-अजैन कुलके-पंजाबी, प्रथम ढूंढ़क परंपरामें दीक्षित और आगम अध्ययनोपरान्त गुजरातमें आकर शिष्यों समेत 'अविच्छिन्न वीर परंपरा में संविज्ञ दीक्षा अंगीकार करनेवाले-सद्धर्मके प्रचारक और प्रसारक, सर्वांग सुयोग्य, सत्यान्वेषी, क्रान्तिकारी, अत्यन्त पवित्र चारित्रवान्, शांतमूर्ति, महातपस्वी, समताधारी, नम्र और विवेकी, उदारता-सहनशीलतादि अनेकानेक गुणोपेत परम पूज्य श्री बुद्धि विजयजी म.सा.का शिष्यत्व प्राप्त करनेको सौभाग्यशाली बने-वि.सं. १९३२ अषाढ मास, वदि दसमी तदनुसार ई.स. १८७५-श्री आत्मारामजी से श्री आनंदविजयजी म.सा. बने। अन्य पंद्रह साधुओंका भी विजयान्त नामवाले विभिन्न नामकरण किये गए और श्री आनन्द विजयजीके शिष्य बनाये गए। गुरुवर्य-पू. श्री बद्धि विजयजी (बूटेरायजी) महाराज--तत्कालीन पंजाबी जैन समाजमें से लुप्त होती जाती सत्यधर्म परंपराको, मानो मृतप्रायः जैनधर्मको संजीवनी देनेवाले धार्मिक क्रान्तिकी चिनगारी रूप प.पू. बूटेरायजी म.सा. लुधियानाके दुलवा गाँवके गिल गोत्रीय टेकसिंहजीके कुलमें माता कर्मोदेकी कुक्षिसे संवत १८६३में उदित होकर, माताके वात्सल्य भरपूर सुसंस्कारोंसे वासित उत्तमोत्तम राहकी ओर आध्यात्मिक उन्नतिकी लगनसे कदम बढ़ाते गये-ढूंढक दीक्षा ग्रहण की, संवत १८८८ और श्री नागरमलजीके शिष्य बने२ आपकी गिरिशिखर सी भव्य एवं प्रतापी देहमें गुण गौरवशाली आत्मा निवसित थी। पंजाबी खड़तर देहमें भी सुंदरता, सुकुमारता व सज्जनता दर्शनीय थे। परम त्यागी, अत्यंत निस्पृही, महायोगी, सत्य-संयमकी मूर्तिके विशाल भाल प्रदेशमें ब्रह्मचर्यका तेज़ चमकता था। आगम बत्तीसीका अध्ययन करते करते जब आपको यह सत्यप्रतीत हुआ कि 'मुंहपत्ती बांधना शास्त्र विरुद्ध है"-उसी वर्ष बालक आत्मारामका इस धरातल पर अवतरण हुआ। यह वह समय था जब अदृष्ट भाविके गर्भमें एकही मंजिलके दो अजनबियोंको एक दूसरेसे अवश रूपसे नज़दीक लानेके प्रयत्न हो रहे थे। असाधारण व्यक्तित्व, अद्भूत शक्ति, असीम प्रतिभा, आदर्श आध्यात्मिक जीवनके सुंदर समन्वयधारी श्री बुटेरायजी म.सा.-नम्र और मीठी जबानसे श्रुताधारित युक्तियुक्त तर्क एवं लाजवाब दलीलोंसे प्रतिपक्षीको म्हात करनेवाले धर्मनेताने अनेक कष्ट और भयंकर अपमान हँसते हँसते झेले थे। श्रुताभ्याससे सत्यकी गवेषणा करके सत्यधर्मकी प्ररूपणा और प्रचार करते हुए जब आपने 61) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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