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________________ निर्मल बुद्धिसे उद्भावित, मुसलाधार बरसते मेघ जैसी अनन्य विद्वत्तापूर्ण-अर्थसभर-प्रखर प्रतिभापूर्ण, अनूठी शैलीसे परिमार्जित व्याख्यान वाणीका श्री संघने कुछ दिनों तक आस्वाद लिया। पवित्र शत्रुजय तीर्थकी यात्रा---तत्पश्चात् प्राचीन जैन श्वेतांबर परंपराके इतिहासमें जिस शाश्वत तीर्थंकी अपरंपार महिमा गायी गई है; जो अत्यंत पवित्र और महान माना गया है। जिसके उत्तुंग शिखर पर २७०० से अधिक छोटे-बड़े मंदिरोंका मानो एक नगर बस गया है, और उस नगरके राजमहल सदृश-प्रथम तीर्थपति श्री ऋषभदेव भगवंतका प्रासाद शोभा दे रहा है। जिसके लिए कवि श्री पद्मविजयजी म.सा.ने गाया है- .. “कलिकाले ए तीरथ मोटुं, प्रवहण जिम भर दरिये विमलगिरि......"३८ “भवि तुमे वंदो रे, सिद्धाचल सुखकारी; पाप निकंदो रे गिरि गुण मनमा धारी"....३९. और जिस महातीर्थकी यात्राके महत्तम उद्देशको दिलमें धारण कर पंजाबसे प्रस्थान कियाथा ऐसे तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजीकी यात्राके लिए आप अहमदाबादसे पालीताना पधारें । पानी लबालब भरा सरोवर बारिशके पानी से छलकने लगता है वैसे ही पुनित गिरिराज सिद्धाचलजीके नयनगम्य होते ही सभी के हर्षोल्लासकी तरंगे हिलोरें लेने लगीं। हृदय सरोवरसे भावोद्रेक छलछलाता हुआ बहने लगा और जैसे ही चिरंतन अभिलसित, प्रशमरस निर्जरते देवाधिदेववीतराग श्री आदिनाथजीका, उस विशाल जिनमंदिरमें दिदार किया तब अपनी सुध-बुध जैसे खो बैठे। नयनोंने पलक झपकना छोड़ दिया और सांस भी जैसे ध्यानमग्नतामें सहायभूत बननेके लिए स्थिर हो गई; तनका चैतन्य मानो परमात्माके चक्षुमें प्रतिबिम्बित होनेलगा और प्रतिमा-स्थित मूर्तित्व तनमें तिरोहित हो गया। ऐसे तदुप बने अंतस्तलकी गहराईसे स्वर फूट पड़े-- “अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करी रे ...........४० तीर्थका माहात्मय गाया है- “पशु पंखी जहाँ छिनक तरिया, तो हम दृढ़ विश्वास गहयो रे....." उसी तादात्म्यमें लयलीन गद्गद् कंठसे दिल खोलते है “दूर देशान्तरमें हम उपने, कुगुरु कुपंथको जाल पर्यो रे, श्री जिनआगम हम मनमान्यो, तब ही कुपंथको जाल जयों रे । तो तुम शरण विचारी आयो, दीन-अनाथको शरण दियो रे, जयो विमलाचल पूरण स्वामी, जनम जनमको पाप गयो रे....."४० तीर्थयात्राका फल क्या चाहते हैं-- “मुझ सरिखा निंदक जो तारो.....४० अनादिकी अध्यात्म-प्यास बुझाते बुझाते ऊपर ही सारा दिन कैसे बीता इसकी भी सुध नहींन भूख, न प्यास; न थकान, बस एक ही लगन लगी थी “आत्माराम अनघ पद पामी, मोक्षवधू तिन वेग वरी रे......"४० मन भरके मानस प्यासकी तृप्तिमें कुछ दिन पालीतानामें ही निरन्तर यात्रा लाभ लेते हुए ही बिताये। आखिर परम तृप्ति और अमिट प्यासका सम्मिलित भाव दिलमें लिए अहमदाबाद पधारें। सभी को परम संतोष था कि जो शास्त्रीय और ऐतिहासिक संदर्भोका परिशीलन किया था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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