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________________ अंजनशलाका-प्रतिष्ठादि धार्मिक अनुष्ठान करवाकर शासन प्रभावना करते करते अहमदाबादमें जिन विजयजीको उत्तराधिकार प्रदान कर २२५६ आसो मासमें कालधर्म प्राप्त हुए। उनकी गेय रचनायें स्तवनादि अद्यापि लोक जिहवाग्रे हैं। पं.श्रीजिन विजयजी---अहमदाबाद के श्रीमाली धर्मदास और माता लाड़कुंवर बाईके पुत्ररत्न . खुशालका जन्म वी.सं. २२२२में हुआ था। पं. क्षमाविजयजीके धर्मोपदेशसे वैरागी बनकर २२४०में जिनविजयजी नामसे दीक्षित हुए। २२५२से श्री संघका उत्तरदायित्व स्वीकार किया। उमदा एवं उच्च चारित्र पालकर विविध तीर्थस्थानों की यात्रा करके पादरामें २२६९में श्रा.शु.१०को कालधर्म प्राप्त हुए। उनकी कृतियाँ-कर्पूरविजय गणि रास-क्षमाविजयरास, जिन स्तवन चौबीसी, जिन स्तवन बावीसी आदि अनेक स्तवन, सज्झाय, स्तुति हैं। पं. उत्तम विजयजी---अहमदाबादके शेठ बालाचंदके घर वी.सं. २२३०में पूंजाशाहका जन्म हुआ। २२४८में खरतरगच्छीय देवचंद्रजीके पास जैन विधि-विधान ज्ञात किये। सुरतसे समेत शिखरजीके छरी पालित संघमें भी विधि-विधानके लिए साथमें गए। वहाँ मधुवनमें रात्रिमें किसी देवने उन्हें श्री नंदीश्वर द्वीप तीर्थ-यात्रा एवं श्री सिमंधर स्वामीके समवसरणके साक्षात् दर्शन करवाये। यात्रानन्तर वै.शु.६, २२५६में श्री जिन विजयजीके पास दीक्षा अंगीकार की। श्री देवचंद्रजीके पास द्रव्यानुयोगादि शास्त्राभ्यास और सुरतके यतिवर्य श्री सुविधि विजयजीसे अभ्यास किया। उपधान, तीर्थयात्रादि शासन प्रभावनाके अनेक कार्य करके और अनेक स्तवन-सज्झाय-स्तुति आदि साहित्य सर्जन-सेवा करते करते वी.सं. २२९७-महा शु. ८ रविवारको कालधर्म प्राप्त हुए। पं. पद्मविजयजी---अहमदाबादके श्रीमाली श्रावक गणेशभाई और माता झमकुबाईके पुत्र पानाचंदका . जन्म वी.सं. २२६२में भादो शु.२को हुआ। मौसी जीवीबाईके सत्संगसें धर्म संस्कार पाकर और पं. श्री उत्तमविजयजीके व्याख्यानमें श्री महाबल मुनिका चरित्र सुनकर दृढ़ वैराग्य वासित बनकर २२७५में चारित्र ग्रहण किया। मुनि पद्मविजयजीने विद्यार्जनसे. आगमाभ्याससे योग्यता पाकर २२८०में विजय धर्मसूरिजीसे पंडितपद प्राप्त किया। उपधानतप, तीर्थयात्रा, सिद्धाचलादि तीर्थस्थानोमें जिनमंदिर-जिनप्रतिमाके अंजनशलाका-प्रतिष्ठा-जिर्णोद्धारादि विविध कार्योंसे शासन प्रभावना करके समर्थ विद्वान-चतुर व्याख्याता अनेक रासाकाव्य, स्तवन, सज्झाय, स्तुति-पूजा-देववंदन चरित्रकाव्यादि के रचयिता कुशल कवि अंतिम २८ दिन उत्तराध्ययन सूत्रकी सुंदर आराधना करते हुए, ५७ वर्षके दीक्षा पर्यायानन्तर चै.सु. ४, २३३२ में स्वर्गवासी बने। पं. रूपविजयजी---२३-२४वीं शतीके विद्वान-उत्तम कवि, वैदक शास्त्र के कुशल निष्णात थें। आपका पृथ्वीचंद्र चरित्र, अनेक रासाकाव्य-पूजा-स्तवन, सज्झाय, स्तुति देववंदनादि रचनायें प्रचलित हैं। पं. कीर्ति विजयजी---खंभातके विशा श्रीमाली ज्ञातिमें कपूरचंदजीका जन्म वी.सं. २२८६ में हुआ। पैंतालीस वर्षकी आयुमें श्री रुपविजयजीके पास पालीतानामें दीक्षा ली। स्वरूपवान, तेजस्वी, त्यागी, ध्यानी गणिजीने गुजरात और मेवाड़ पर बहुत उपकार किए हैं। आपके विद्वत्तादि अनेक गुण सम्पन्नएक से बढकर एक ऐसे पंद्रह महान शिष्य थे। कई शिष्योंकी तो अपनी भव्य परम्परा आजभी . 45) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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