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________________ करके योग्यता प्राप्त करनेसे गुरु म.ने उन्हें वी.सं. २१२५ मृ.कृ.५. को पंडित और २१२७में आचार्यपद प्रदान किया और विजयदेवसूरि बने एवं वी.सं. २१२८में गच्छानुज्ञा प्रदान की। मामा म. धर्मसागरजीके गच्छके साथ कुछ सैद्धान्तिक विचारभेदके कारण उनकी और उनके गुरु विजयसेन सूरि म. की गच्छ परंपरा भिन्नभिन्न हो गई। उन्होंने उदयपुर नरेश जगतसिंहको प्रेरित करके नगरमें अहिंसाका पालन करवाया। ईडरके राय कल्याणमल्लादि भी उनसे विशेष प्रीति रखते थे। उन्होंने अपने शिष्य कनकविजयजीको आचार्यपद देकर आ. विजयसिंहके नामसे उत्तराधिकारी बनाया, जो उनके जीवनकालमें ही स्वर्गवासी हुए। आचार्य देवसूरि म.का स्वर्गवास ऊनामें वी.सं. २१८३ में हुअ। विजय सिंहसूरि---तपागच्छमें कियोद्धार करके संविज्ञ मार्ग प्रवर्तनकी भट्टारक श्री विजय देव सूरि म.की तीव्राभिलाषाको इन्होंने मूर्तिमंत रूप देनेके लिए अपने शिष्य पंन्यास सत्य विजयजो गणि आदिको साथमें रखकर प्रयत्न किये और वी.सं. २१७६में महा सुद त्रयोदशी गुरुवारको पुष्य नक्षत्र में संविज्ञ साधु-साध्वीके लिए पैंतालीस बोलका पट्टक तैयार किया। महाशु.२ २१७८में, अहमदाबाद में उनका कालधर्म हुआ। पंन्यास सत्यविजयजी गणि---परमशांत, संवेगी, त्यागी, वैरागी, संयमी, शुद्ध क्रिया प्रेमी, विद्वान, तपस्वी, ध्यानी, शासन प्रभावक पं. सत्यविजयजी लाडलुंके दुग्गड़ गोत्रीय वीरचंद ओसवाल और माता विरमदेवीके अपत्य शिवराजके रूपमें अवतरित हुए। वी.सं. २१३७में विजयसिंह सूरिजीका शिष्यत्व स्वीकार करके अध्ययनादि करके विद्वान बने। उनके क्रियोद्धार पट्टक पर हस्ताक्षर करके विजयदेवसूरिजीकी आज्ञासे वी.सं. २१८१में महा सु. १३ को उनकी ही निश्रामें रहकर पाटणमें अपनाया। स्वेच्छासे भट्टारक पद त्यागकर जीवनपर्यंत पंन्यास ही बने रहे। आनंदघनजीके समकालीन, उनके साथ वर्षों तक बनमें बसकर महान तप एवं योगाभ्यासमें लीन रहनेवाले वृद्धावस्थामें अंतिम चातुर्मास पाटणमें करके वी.सं. २२२६, पो.कृ.१२ को सिद्धयोगमें अनशन कर समाधिपूर्वक कालधर्म प्रात हुए। पं. कर्पूर विजयजी---बचपनमें ही माता-पिता वीरा-भीमजी की छत्रछायासे वंचित हो जाने के कारण बुआके घर बचपन व्यतीत करनेवाले कानजीका जन्म पाटणके पासके वागरोड़ गांवमें वी.सं. २१७४में हुआ। पं. सत्य विजयजी गणीके पास २१९० में कर्पूर विजय नामसे दीक्षित हुए। शास्त्राध्ययनसे योग्यता प्राप्त करनेसे आ. श्री विजयप्रभ सूरिने उन्हें आनंदपुरमें पंडित पदसे विभूषित किया।- पं. सत्य विजयजी के पट्ट पर २२२६में स्थापन हुए। अनेक धर्मकृत्य करवाकर शासन प्रभावना की। श्रा.कृ.१४, २२४५ को कालधर्म प्राप्त हुए उनके दो मुख्य शिष्य थे-पं. वृद्धि विजय और पं. क्षमाविजयजी। पं. क्षमाविजयजी---आबू पर्वतके पोयंद्रा गांवके चामुंडा गोत्रीय ओसवाल शाह कला श्रेष्ठ और माता वनांदेवीके आत्मज खेमचंदका जन्म हुआ। श्री वृद्धि विजयजी से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली और क्षमाविजय बने वी.सं. २२१४। तीर्थयात्रा के साथ साथ शास्त्राभ्यास करके पाटणमें पंन्यास पद प्राप्त किया और वी.सं. २२४५में गुरुके पट पर बिराजित हुए। पाटण-कावी आदि तीर्थस्थानोंमें (44 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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