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________________ न हों तब कार्यकी निष्पत्ति असंभव-सी है। वैसे ही उपरोक्त कालादि पाँच कारणके बिना या उनके सम्यक् सहयोगके अतिरिक्त कार्यसिद्धि भी अशक्य-प्रायः होती है। नियति और ज्योतिषशास्त्रका स्वरूप (परिभाषाके संदर्भ में): व्यक्तिके जीवनचक्रके किसीभी प्रसंगको घटित करनेवाले उपरोक्त कालादि पाँच कारणोंमेंसे 'नियति' (भाग्य) अदृष्ट होता है। कोईभी सांसारिक याने छद्मस्थ-अपूर्णज्ञानी व्यक्ति इससे अनभिज्ञ होती है। चूंकि एक क्षणान्तर कौनसी घटना घटित होगी उसका ज्ञान उन छाद्यस्थिकोंको नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक पलकी प्रत्येक घटनायें या प्रसंग व्यक्तियोंकों व्यामोहित करता रहता है। फलतः प्रत्येक प्रसंगसे वह सुख-दुःखादिका विलक्षण अनुभव करता रहता है। भावी जीवन-स्वरूपसे ज्ञात होने की जिज्ञासा, नैसर्गिक रूपसे प्रायः सर्वमें समान रूपसे दृष्टिगोचर होती हैं। इस अदृष्ट भविष्यको प्रत्यक्षकी भाँति दृश्यमान करानेवाली चक्षु सदृश जो सैद्धान्तिक, गाणितिक और तार्किक साहित्य होता है वही ज्योतिष-शास्त्र'की संज्ञा प्राप्त करता है। अन्यथा इसे ऐसे भी प्रस्तावित कर सकते हैं पूर्व कर्माधीन व्यक्तिके लिए जीवनमें मिलनेवाले जो शुभाशुभ फल निर्देश और बाह्याभ्यन्तर व्यक्तित्वका निर्देश, स्थान, राशि, ग्रहादि पर अवलम्बित कथन करने में सहयोगी सिद्धान्तों एवं तदनुकूल परिणामोंका आकलन जिसमें किया गया है ऐसे ग्रन्थको ज्योतिषशास्त्र' कहा जाता है। उपरोक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थानादि तीनों अंगो द्वारा किए जानेवाले स्पष्ट फलादेशके लिए ज्योतिष-शास्त्रको पंचांग अर्थात्-तिथि-वार-नक्षत्र-योग और करण इन पाँच अंगों की सहायता आवश्यक है। इनके बिना ज्योतिष-शास्त्र पंगु हो जाता है। अतएव ज्योतिष शास्त्रमें पंचांगका भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। ज्योतिष-शास्त्रके इस सामान्य परिचय पश्चात् उसके विभिन्न अंगोंका विशिष्ट परिचय, संक्षिप्त रूपरेखा स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है। स्थान :- किसीभी व्यक्तिके जन्म समयमें ब्रह्मांडमें ग्रहों की स्थितिको प्रदर्शित करनेवाले चार्ट (मानचित्र) को जन्म कुंडली कहा जाता है। उस कुंडलीको बारह विभागोमें विभक्त किया जाता है। प्रत्येक विभागको भाव-भुवन या स्थान की संज्ञा दी जाती है जिसके आधार पर निश्चित स्थानसे निश्चित घटनाओंका ज्ञान हो सकता है। व्यक्तिके जीवनके विभिन्न प्रसंगोंका निर्देशन इन स्थानों के विशिष्ट प्रभावको लक्ष्यमें रखकर प्रस्फुटित किया जा सकता है।- यथाप्रथम स्थानसे . व्यक्तिका चारित्र, आरोग्य, तिल-मसा-रूप-रंगादि (बाह्य व्यक्तित्व) जीवनमें सुख-दुःखादिका अनुभव आदिका निर्देश मिलता है। शारीरिक अंग मस्तक (अर्थात् स्वभाव) सादिका निर्देश मिलता है। द्वितीय स्थानसे - व्यक्तिकी वाणी, धन, पारिवारिक सुख एवं गला-आंखका निर्देश मिलता तृतीय स्थानसे व्यक्ति के साहस, पराक्रम, बंधु-सुख, प्रवास-पर्यटन (एकाध दिनका छोटा प्रवास), नौकरी संबंधित सुख, -स्कंध, हाथादिका निर्देश होता है। मकान, जमीन, वाहन, सुख-शांति, अभ्यास, विभिन्न डिग्री रूप उच्चपदप्राप्ति, माता, मित्र, श्वसुरादिका सुख-हृदय, वक्षस्थलादिका निर्देश होता चतुर्थ स्थानसे - (88) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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