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________________ प्ररूपणा करके हुक्म-मुनि-शांतिसागर-जेठमलादि साधु एवं हिन्दु-मुस्लिम-आर्यसमाजी-ईसाई आदि समस्त विद्वानों-पंड़ितोंको चुन चुनकर मानो काहिल करते रहें-उत्सूत्र प्ररूपकों और जिन शासनकी हिलना करनेवालोंको चूप कराते रहें। सुशीलजीके शब्दो में 'युक्ति और प्रमाणोंकी तो आप टंकशाल थे' ११८। आपका शास्त्रीय ज्ञान अगाध था। जब किसी विषयको लेकर चर्चा या शास्त्रार्थ के समय उस प्रश्नको सर्वांगिण रूपसे विश्लेषित करते हैं तब मानो जैसे टंकशालमें से मुद्रायें झरती हों ऐसे ही पूर्वाचार्यों के संदर्भ वचनोंकी वृष्टि होती थी। जैसे-'चतुर्थ स्तुति निर्णय' भाग-१-२ नामक छोटेसे ग्रंथमें ही-जिसमें केवल सामुदायिक एक प्रश्नकी ही चर्चा है-(७०) सत्तर प्रामाणिक ग्रंथों के संदर्भ प्रस्तुत किये हैं-जैसे लगता है प्रतिवादीकी आसपास प्रमाणरूप बाणोंके ढेर पर ढेर लादे जा रहे हों।" और उसे घेर कर चूप होनेपर मजबूर कर रहे हों। “यदि आपको ख्यातनाम वादकुशलता प्राप्त करनी हों या जैन दर्शन-अनेकान्त दर्शनका संपूर्ण परिचय पाना है अथवा उसके खजाने को देखना है तब आपको सर्व प्रथम श्री आत्मारामजी म.के पुस्तकोंको पढ़ना चाहिए जिससे अल्यकालमें आप प्रौढ़-धुरंधर तार्किक बन जायेंगें ।"११९ तार्किक शिरोमणि---क्षोभहीन पांडित्ययुक्त विद्वानोंमें शास्त्रार्थों द्वारा स्व-स्व धर्मके जय-पराजयकी स्पर्धाके उस युगमें तत्वोंकी खुले दिलसे चर्चा होती थी और परस्पर खंडन-मंड़नभी जिंदादिलीसे होते रहते थे। न्यायके उस बौद्धिक समरांगणमें ब्रह्मतेज परिपूर्ण-तार्किक शिरोमणी, अजेय योद्धाकी अदासे ऐसे अखूट-अजस्त्र-अकाट्य तर्कबाणों की वर्षा करनेवाले श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी ऐरावण हस्ति सदृश शोभायमान होते थे। आपके सामने कोई वादी ठहर नहीं सकता- “सशास्त्र प्रमाण, प्रबल तर्क एवं वादविवादके लिए युक्तियोंका खजाना आपको श्री आत्मारामजी महाराजजीके पुस्तकोंमेंसे प्राप्त हो जायेंगें।"१२० अत्यन्त विशाल साहित्यिक अध्ययनमें इन सबका राज़ छिपा है। इस गंभीर ज्ञान गरिमा रूप, अज्ञानांधकार के उदीयमान दिनकरका स्वर्णिम तेज़ जिनशासनको अद्यावधि आलोकित कर रहा है। जैन इतिहासका अवलोकन करनेसे ज्ञात होताहै कि नव्य न्यायका पूर्णतया आचमन करनेवाले समर्थ उपाध्याय श्री यशोविजयजी म.के बाद उनके अनुगामियोंमें श्रुताभ्यासका प्रवाह क्षीणतर होता जा रहा था उसे पुनः विस्तृत महानद स्वरूपमें प्रवाहित करनेका श्रेय श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.को मिलता है, जिन्होंने अपनी तार्किक-न्याय बुद्धिके द्वार खुले रखकर शास्त्रीय अभ्यास किया और अन्योंकोभी उसके लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। जिस समय मुस्लिमोंके आक्रमण एवं राज्य भयके कारण ज्ञानराशि संजोये शास्त्रीय पुस्तकोंको संरक्षण हेतु-मानों नज़रोंसे ओझल रखे जाते थे; मुद्रित या प्रकाशित ग्रन्थ तो नाम मात्रके ही थे और हस्तलिखित प्रतादि भी ज्ञान भंडारोंकी संदूकोंमें बंद रखे थे। ऐसी दुष्कर परिस्थितिमें भी आपने येन-केन प्रकारेण, जहाँ-तहाँसे अत्यंत विशाल पैमाने पर पुस्तकोंको प्राप्त करके तत्त्व परीक्षक एवं समीक्षककी दृष्टिसे अध्ययन किया जिसमें वेद-वेदभाष्य-वेदान्त; स्मार्तपुराण; बौद्ध-मुस्लिम-ईसाई; श्वेताम्बर-दिगम्बर-दूंढ़क आदि अनेक धर्मोंका-मतोंका और आम्नायोंका लुप्त और प्राप्त, प्राचीनअर्वाचीन, मुद्रित-प्रकाशित या हस्तलिखित ग्रन्थ या पत्र-पत्रिकायें, लेख-शोधकार्य, शिलालेख और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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