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________________ ४६ समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि कि जीवन उसका और सबका है । सम्पत्ति के रूप में वह जो जमा कर रहा है, उसकी नहीं किसी की भी नहीं क्योंकि सबकी है । सम्पत्ति पर स्वामित्व स्तेय है, अदत्तादान है अर्थात् चोरी। ईशावास्योपनिषद् से लेकर मनुस्मृति तक, प्लेटो से लेकर मसीह तक, महावीर से लेकर मार्क्स तक यह आवाज उठती रही है और यह आवाज धर्म की है, सत्य की है। उसे न मानने के लिए हम स्वतन्त्र है, परिणाम से बचना संभव नहीं । मानने के लिए स्वतन्त्र हैं, तब दुष्परिणामों से बच सकते हैं । आचार्य श्री तुलसी से एक व्यक्ति ने पूछा क्या भारत में रक्त - क्रांति आने वाली है ? उन्होंने कहा "आप ला रहे हैं तो आयेगी ही । आप नहीं लायेंगे तो नहीं भी आ सकती है । बात आप पर निर्भर है ।" हर क्रिया की प्रतिक्रिया तो होती है । प्रतिक्रिया से बचने का एकमात्र उपाय है उस क्रिया से ही बचना। दूसरा कोई उपाय नहीं । इसलिए महावीर कहते हैं " वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य । णाहं परेहि दम्मंतो बंधणेहि बहेहि य ॥” "" 'अच्छा है तप और संयम - सादगीपूर्ण जीवन के द्वारा हम अपने आप पर नियन्त्रण करें, नहीं तो दूसरे ऊपर से बन्धन लाद कर या बल-प्रयोग कर हम पर नियन्त्रण करेंगे ।" स्वतन्त्रता का विकल्प परतन्त्रता है । परतन्त्रता का विकल्प स्वतन्त्रता है । तन्त्रहीनता किसी का विकल्प नहीं है । वह अभाव है स्वतन्त्रता का, परतन्त्रता का भी । स्वतन्त्रता न होगी तो परतन्त्रता आ जाएगी । तन्त्रहीनता नहीं टिक सकती । जीवन सारा का सारा तंत्र है, व्यवस्था है, सन्तुलन है । असन्तुलन चल नहीं सकता लम्बे समय तक । उसे टूटना पड़ता है। विषमता चल नहीं सकती अधिक समय तक, उसे मिटना होता है । शोषण चल नहीं सकता अनिश्चित काल तक, उसका विनाश होता है, उन्मूलन होता है। हिंसा का कोई भी रूप हो, प्रतिहिंसा को जन्म देता है । जीवियं पुढो इहमेगेसिं माणयाणं खेत्त-युत्थु - ममायमाणाणं आरत्तं विरतं - मणि- कुंडल - सह - हिरण्णेण इत्थिआओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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