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________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,...." २८१ ध्यान आर्त्तध्यान है। वैसे रोगों के कारण तथा तृष्णा के कारण चित्त की एकाग्रता हो तो उसे आर्तध्यान कहा है, जो आत्महित की दृष्टि से अनिष्ट है । - दूसरा रौद्रध्यान, जिसकी उत्पत्ति पापमय प्रवृत्तियों से होती है । हिंसा, असत्य तथा परिग्रह के कारण भावों में मलिनता आती है। चित्त कलुषित करने में रौद्रध्यान सहायक होता है । रौद्रध्यान आत्महित में बाधक होता है। धर्म और शुक्ल ध्यान कल्याण-प्रद हैं । धर्म का अर्थ है वस्तु-स्वभाव । वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, अनन्त पर्याय होते हैं। हमें बहुत कम पर्यायों का ज्ञान होता है। शेष अज्ञात होते हैं। अज्ञात पर्यायों का ज्ञान कराने में ध्यान उपयुक्त साधन है। ___ ज्ञानी मुनियों ने जिन सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का प्रतिपादन किया वे हमारी बुद्धि के लिए गम्य नहीं हैं पर वे ध्यान से जाने जाते हैं। धर्मध्यान सद्ध्यान माना गया है, क्योंकि इस ध्यान से जीव का रागभाव मंद होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। इस दृष्टि से यह ध्यान आत्म-विकास का प्रथम चरण है। स्थानांग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है । धर्मध्यान उसके होता है, जो दस धर्मों का पालन करता है, इन्द्रिय-विषयों से निवृत्त होता है तथा प्राणियों की दया में रत होता है। ज्ञानसार में कहा गया है कि शास्त्र-वाक्यों के अर्थों, धर्ममार्गणाओं, व्रतों, गुप्तियों, समितियों, भावनाओं आदि का चिन्तन करना धर्म-ध्यान है। इस प्रकार इसे मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निज परिणामी माना गया है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप धर्म-चिन्तन का पर्याय कहा गया है। ___ धर्म-ध्यान के स्वरूप को जानने के लिए योगी को ध्याता, ध्येय, ध्यान, फल, ध्यान का स्वामी, जहाँ (ध्यान योग्य क्षेत्र), जब (ध्यान योग्य काल) तथा जैसे (ध्यान योग्य अवस्था) मुद्राओं को ठीक तरह से समझना चाहिए । अर्थात् योगी को इन्द्रियों को शान्त एवं मनोनिग्रह करने वाली यथावस्थित वस्तु का आलम्बन लेते हुए एकाग्रचित्त होकर ध्यान करना चाहिए। निर्विघ्न ध्यान देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार सम्पादित होता है और इसके लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और वैराग्य अपेक्षित हैं, जिनसे सहजतया मन को स्थिर किया जाता है, कर्मों को रोका जाता है तथा वीतरागता आदि गुणों को प्राप्त किया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म - ध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं के चिन्तन पर जोर दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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