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________________ २४१ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद दूसरी बात यह है कि संसार में जितने भी मतभेद हैं उनका अधिकांश तो दृष्टिभेद और एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न अंगों पर भार देने के कारण हैं। जो व्यक्ति जगत् की एकता की खोज में लगा हो उसे विविधता की उपेक्षा करनी पड़ती है। उस विविधता को उसे 'पश्यन्नपि न पश्यति' करनी पड़ती है। जैन दर्शन क्योंकि अनेकान्तदर्शन है और अनेकान्तदर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक माना गया है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का यथार्थ बोध प्रमाण और नय से ही किया जा सकता है। प्रमाण का अर्थ है जिसके द्वारा पदार्थ का सम्यक् परिज्ञान हो । जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण का लक्षण है “स्व-पर-व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात् स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है। जैन दर्शन उसी ज्ञान को प्रमाण मानता है जो अपने आपको भी जाने और अपने से भिन्न पर-पदार्थों को भी जाने और वह भी निश्चयात्मक एवं यथार्थ रूप में । प्रमाण-वाक्य सकलादेश है, क्योंकि उससे समग्र धर्मात्मक वस्तु का प्रधान रूप से बोध होता है। अनेकान्तवाद का आधार सप्तनय है। प्रमाण से गृहीत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी भी एक धर्म का मुख्य रूप से ज्ञान होना नय है। किसी एक ही वस्तु के विषय में भिन्नभिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। ये दृष्टिकोण ही नय हैं - यदि वे परस्पर सापेक्ष हैं तो । परस्पर विरुद्ध दिखने वाले विचारों के मूल कारणों का शोध करते हुए उन सबका समन्वय करनेवाला शास्त्र नयवाद है । नय-वाक्य विकलादेश है, क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है। यह विभिन्न एकांगी दृष्टियों में सुन्दर एवं साधार समन्वय स्थापित करता है। आचार्य धुव ने ठीक ही कहा है कि स्याद्वाद एक वाद नहीं अपितु दृष्टि है। सर्व वादों को देखने के लिए यह अंजन है अथवा यों कहिए कि चश्मा है। उन्होंने यह भी कहा है कि स्याद्वाद एक प्रकार की बौद्धिक अहिंसा है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारिक शक्ति और व्यापक प्रभाव को हृदयंगम करके डॉ. हर्मन जैकोबी ने कहा था - "स्याद्वाद से सब सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है ॥" श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है"जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निब्बहई । तस्य भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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