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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २३९ मिलन होता है, वह इस प्रकार है- जोन के अपने मन में जोन का खुद का चित्र, स्मिथ के मन में जोन का चित्र, ईश्वर की दृष्टि में जोन का चित्र (John as John knows himself John as Smith knows him, Johh as God knows him.). - इसी प्रकार तीन स्मिथ । इसका तात्पर्य यह है कि हम अपने को या किसी अन्य को सम्पूर्ण रूप से नहीं जान सकते। यह समझ एक ओर हमें अन्य के प्रति उदार बनना सिखाती है और अन्य के द्वारा होनेवाली टीका के प्रति सहिष्णु बनना सिखाती है । अर्थात् अन्य के दर्पण में हमारा जो प्रतिबिम्ब है उसे देखने की शिक्षा देती है । उपनिषद में कहा है कि मन को बड़ा रखो, वह व्रत है 'महामना स्यात् तद् व्रतम् ।" इसीको सेन्ट पॉल ने "" charity" कहा और उसे श्रद्धा तथा आशा से भी बड़ा पद दिया " - And now abideth faith, hope, charity these three; but the greatest of these is charity. इसी charity को गीता में " आत्मौपम्य" कहा है और धम्मपद में जिसके विषय में "अत्तानं उपमं कत्वा" ऐसा कहा गया है । किन्तु गुणों के विषय में ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका कहीं अनर्थ न हो, इस में दृष्टिकोण को सामने रखकर इतना-सा स्पष्टीकरण कर देना चाहती हूँ कि पाप व पुण्य कोई भेद नहीं है और " रामाय स्वस्ति” “रावणाय स्वस्ति" कहना एक ही बात हैं - ऐसा स्याद्वाद का अर्थ नहीं है । जो तारतम्य है वह गुणोत्कर्ष की अपेक्षा से है। इसी के साथ इतना और समझना चाहिए कि कई बार पाप-पुण्य का निर्णय करना जरा अटपटासा हो जाता है । इसी प्रकार कई बार व्यक्ति अनिच्छा होने पर भी विवश होकर पाप करता है । हम स्वयं भी ऐसा ही करते हैं। इससे गाँधीजी ने यह फलितार्थ निकाला कि पाप का तिरस्कार करना चाहिए, पापी का नहीं । पाप पर दया करके उसे पुण्य की कोटि में रखने से अनर्थ ही होता है । इसलिए इतिहासकार को ऐतिहासिक व्यक्ति के कार्य का मूल्यांकन करने की जो सलाह लार्ड एक्टन ने दी है वह ठीक है, क्योंकि न्याय व्यक्ति का नहीं अपितु उसके कार्यों का होता है । Jain Education International जीवन में अनुभव (Experience) और तर्क (Reason) दोनों की भिन्न भिन्न दृष्टियाँ हैं । अनुभव की दृष्टि से देखने पर मालूम होता है कि प्रकृति ने जगत् के समान जीवन में भी बाड़ खड़ी नहीं की है। जीवन में तो तेज और छाया (Light and shade) है अथवा जैन दर्शन के कथनानुसार तरतम भाव है । बाड़ें या दीवारें तो तर्क ने खड़ी की हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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