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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २३७ करता है और परस्पर विरोधी वस्तुओं के संमिश्रण का प्रयत्न करता है। वह कहता है कि मनुष्य में और समाज में प्रेम आवश्यक है और वैराग्य भी आवश्यक है । कोमलता चाहिए और कठोरता भी चाहिए; छूट चाहिए और मर्यादा भी चाहिए। प्रणालिका-रक्षण और प्रणालिका-भंग दोनों आवश्यक हैं । यदि वस्तुतः देखा जाय तो यही सलाह सच्ची है । 1 उदाहरण के तौर पर प्रेम और वैराग्य परस्पर विरोधी नहीं हैं, अपितु एक ही सिक्के के दो बाजू हैं। प्रेम में जब वैराग्य की मात्रा हो तभी वह सच्चा प्रेम हो सकता है, अन्यथा वह केवल मोह या आसक्ति रूप बन जायेगा । "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः " -त्याग करके भोग करो । उपनिषद के इस वाक्य में यही बात कही गई है। दूसरी ओर वैराग्य भी प्रेम से अनुरंजित होने पर ही सुशोभित होता है, और सुफलदायक बनता है। अन्यथा वह मनुष्य के हृदय को शुष्क वीरान बना देता है । स्त्री- पुत्रादि के साथ कलह करके यदि संसार - त्याग किया हो तो वह वैराग्य नहीं है। सिद्धार्थ का यशोधरा से असीम स्नेह था इसी से उनका गृह-त्याग महाभिनिष्क्रमण कहा गया और उसीमें से “आत्मनो हिताय जगतः सुखाय च" इस प्रकार का संसार के लिए एक उपयोगी सन्देश प्रकट हुआ । 1 स्याद्वाद अथवा सापेक्षवाद से यह बात फलित होती है कि कोई भी गुण जब तक अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, गुण रहता है, किन्तु यदि उसमें न्यूनता या अतिशयता आ जाय तो वह दोष हो जाता है। यही मध्यम मार्ग है। गीता में भी कहा है कि समत्व ही योग है। मैडेम ब्लेवेट्स्की ने सन्तुलन (Equilibrium) रखने का उपदेश दिया है । किन्तु जीवन में सद्गुण की साधना करना और साथ ही साथ सन्तुलन की रक्षा करना रस्सी पर नाचने से कम नहीं है। जीवन का लोलक जब तक हिलता रहता है तब तक वह बीच की समत्व स्थिति से आगे या पीछे ही रहता है । बीच की स्थिति में तो केवल एक क्षण के लिए ही आता है यदि वह उस स्थिति में हमेशा के लिए स्थिर हो जाय तो जीवन की घड़ी ही बन्द हो जाय । अतः जीवन की गति सतत सन्तुलन बिगाड़ने वाली ही एक क्रिया है, तथापि जीवन की गति को चलाते हुए सन्तुलन की रक्षा करना यही मनुष्य का साध्य है। ऊँचे लटकाये गये तराजू के दोनों पलडों को स्थिर रखने की क्रिया के समान यह मार्ग धर्म-साधन की दृष्टि से ही नहीं अपितु सफल एवं सरल व्यवहार के लिए भी आवश्यक है । संसार में कोई भी मनुष्य सर्वसद्गुणों का समान भाव से अनुशीलन नहीं कर सकता । १. ईशोपनिषदः । Bain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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