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________________ २३३ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद स्यावाद श्रुत होने से असाक्षात् ज्ञान कराता है।'' स्याद्वाद का सुव्यवस्थित निरूपण जैन-दर्शन ने किया, यह ठीक है, किन्तु यह नियम तो जगत् जितना ही प्राचीन तथा व्यापक है । मल्लिषेण के कथनानुसार स्याद्वाद संसारविजयी और निष्कण्टक राजा है “एवं विजयिन निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे' इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद तक में मिलता है “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' । (ऋग्वेद १६४.४६) एक ही सत् तत्त्व का विप्र विविध प्रकार से वर्णन करते हैं - यह स्याद्वाद का बीज-वाक्य है । जैन दर्शन की दृष्टि के अनुसार एक ही पदार्थ के विपरीत वर्णन अपनीअपनी दृष्टिसे सच्चे हैं । पारिभाषिक शब्दों में कहा जाय तो प्रत्येक पदार्थ में “विरुद्धधर्माश्रयत्व" है। इस प्रकार का परस्पर विरोधी वर्णन उपनिषद में भी एक जगह आता है। आत्मा के विषय में उपनिषदकार कहते हैं “वह चलता है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह समीप है, वह सर्वान्तर्गत है, वह सभी से बाहर है" - "तदेजति तन्नेजति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तद्सर्वस्यास्य बाह्यत: ।” ईश - ५ ___सोक्रेटीस को अपने ज्ञान की अपूर्णता का,-उसकी अल्पता का पूरा भान था। इस मर्यादा के भान को ही उसने ज्ञान अथवा बुद्धिमत्ता कहा है। वह कहता था कि में ज्ञानी हूँ क्योंकि में जानता हूँ कि मैं अज्ञ हूँ। दूसरे जानी नहीं हैं क्योंकि वे यह नहीं जानते कि वे अज्ञ हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती से पूछा गया “आप विद्वान हैं या अविद्वान ?" स्वामी जी ने कहा “दार्शनिक क्षेत्र में विद्वान और व्यापारिक क्षेत्र में अविद्वान ।' यह अनेकान्तवाद नहीं तो क्या है ? प्लेटो ने इस स्याद्वाद अथवा सापेक्षवादका निरूपण विस्तार से किया। उसने कहा कि हम लोग महासागर के किनारे खेलनेवाले उन बच्चों के समान हैं जो अपनी सीपियों से सागर के पूरे पानी को नापना चाहते हैं । हम उन सीपियों से महोदधि का पानी खाली नहीं कर सकते फिर भी अपनी छोटी-छोटी सीपियों में जो पानी इकट्ठा करना चाहते हैं वह उस अर्णव के पानी का ही एक अंश है इसमें कोई संशय नहीं। उसने और भी कहा है कि भौतिक पदार्थ सम्पूर्ण सत् और असत् के बीच के अर्धसत् जगत् में रहते हैं। १. स्याद्वादकेवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने भेदः साक्षादसाक्षाच्च हावस्त्वन्यतमं भवेत ॥ आप्तमीमांसा, १०. २. सी.ई. एम जोड-फिलोसोफी फोर आवर टाइम्स, पृ. ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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