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________________ २२३ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद पुरस्कर्ता कहे जाते हैं। कहा जाता है कि उनके ही समकालीन संजय वेलत्थिपुत्त ने इस सिद्धान्त का' अज्ञानवाद के रूप में प्रतिपादन किया था । उसीको भगवान महावीर ने परिवर्धित और परिष्कृत किया, अथवा उत्तर काल में जिस वस्तु को माध्यमिकों ने चतुष्कोटि विनिर्मुक्त कहा उसीको भगवान महावीर ने विधि रूप देकर परिपुष्ट किया । ऐतिहासिक पंडितों की ये परिकल्पनाएँ इसलिए निराधार हैं कि जैन तीर्थंकरों ने अनेकान्त तत्त्वों का साक्षात्कार किया और श्रुत-केवलियों ने उनके अर्थ को अनुश्रुत करके स्यावाद का श्रुत के रूप में वर्णन किया । इसके अतिरिक्त निषेध सदा विधिपूर्वक होता है, अत: उनके प्रतिष्ठापक अर्हन्त-केवली, श्रुत-केवली, आदि ही हैं, साधारण व्यक्ति नहीं। अन्य आराति आदिकों ने उन्हीं का अनुसरण किया है। स्याद्वाद का स्पष्ट उल्लेख समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक आदि के ग्रंथों में है । स्याद्वाद की मुख्य प्रतिष्ठा या श्रेय समन्तभद्र को है। सिद्धसेन ने भी इसकी परिपुष्टि में अच्छा भाग लिया है। अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, हेमचन्द्र, आदि ने इसके विकास में चार चाँद लगा दिये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सप्तभंगी का उल्लेख किया है, स्यावाद का नहीं । जो कुछ भी हो, स्याद्वाद जैन दर्शन के तत्त्वों का वर्णन करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है। अनेकान्त के उद्भव-कर्ताओं ने अच्छी तरह अनुभव किया था कि जीवनतत्त्व अपने में पूर्ण होते हुए भी वह कई अंशों की अखण्ड समष्टि है । यह स्थिति प्रत्येक वस्तु-तत्त्व की भी है। अत: वस्तु को समझने के लिए अंश का समझना भी आवश्यक है। किसी मशीन को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसके पुरजों को समझना भी जरूरी है। यदि हम अंश को समझने में आनाकानी करते रहें या उसकी उपेक्षा करते रहें तो हम अंशवान् याने वस्तुतत्त्व को उसके सर्वांग-संपूर्ण रूप में नहीं समझ सकेंगे । साधारणतया समाज में जो झगडा या वादविवाद होता है, वह दुराग्रह, हठवादिता और एक पक्ष पर अड़े रहने के कारण होता है। यदि हम सत्य की जिज्ञासा से उसके समस्त पहलुओं को अच्छी तरह देख लें तो कही-न-कहीं सत्य का अंश निकल आएगा । एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों ओर से देख लिया जाय, फिर किसी को एतराज भी न रहेगा। इस १. अत्थीति न भणामि णत्थीति न भणामि इत्यादि। २. माध्यमिक कारिका -नागार्जुन। ३. विधिपूर्वकत्वान्निषेधस्य। Jain Education International For Dr For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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