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________________ २२२ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि अतः अनेकान्त का उद्भव इस युग के प्रारम्भकाल में हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त का उद्भव तैवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के द्वारा हुआ। उनके २५० वर्ष के बाद महावीर अनेकान्त के प्रवर्तक हए । इस युग के अंतिम तीर्थंकर महावीर हैं। महावीर का भी प्रथम उपदेश त्रिपदी रूप से ही हुआ है। ___ किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टि से वस्तु को देखने की तथा उसके संबंध में अन्यन्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है। विभिन्न दर्शनों से दृष्ट सत्यों में एक रूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोडकर निर्मल और तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न ही अनेकान्त के उद्भव के हेतु हैं। यहां आचार्य हरिभद्र का श्लोक ध्यान देने योग्य हैं। “आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् ॥"२ अनाग्रही एवं समभाव वाला व्यक्ति नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है। वह वस्तु के कतिपय अंशों को ही देख कर अपने को कृतकृत्य नहीं मानता, किन्तु वह वस्तु के समग्र स्वरूप का आकलन करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि वस्तु के किसी आंशिक सौन्दर्य से चकित हो पथभ्रष्ट नहीं होती, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप को देखने के लिए आकुल रहती है। इस वृत्ति का प्रतिफल ही अनेकान्त का उद्भव है। अनेकान्त केवल ज्ञानजन्य अनुभूति है । उसी अनुभूति का वचन द्वारा प्रकाशन स्याद्वाद है। यही कारण है कि भगवद्वाणी स्याद्वादमयी होती है। अत: स्याद्वाद का जन्म भगवान अर्हन्त देव की दिव्य भाषा के साथ है। इस युग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। इसलिए उनको ही स्याद्वाद का आदि प्रर्वतक कहा जा सकता है। भगवान् ऋषभ के अनन्तर बाईस तीर्थंकर उसी प्रकार का उपदेश अपनी स्याद्वादमयी वाणी द्वारा करते रहे हैं। वर्तमान समय के तीर्थंकर भगवान महावीर हैं। भगवान महावीर की प्रतिष्ठा और सिद्धान्त बौद्ध त्रिपिटकादि ग्रंथों द्वारा सिद्ध है । इस समय ही स्याद्वाद-सिद्धान्त के वे १. भारतीय दर्शन (बलदेव उपाध्याय) पृ. ९१ । २. न्यायखण्डनखाद्य की भूमिका से उद्धृत ३. स्याद्वाद भगवतप्रवचननय - न्याय विनिश्चय विवरण, पृ.३६४ ४. सव्वे तित्थयरा एवमेव सच्चं भासयन्ति - ‘आचारांग सूत्र-कल्पसूत्र' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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