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________________ २२० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि “स्यात्' विधिपरक अव्यय है । एक वाक्य में जब वस्तु के अनेक धर्मों का कथन नहीं किया जा सकता, तब उसके निर्वचन व्यवहार को अबाधित करने के लिए “स्यात्" पद की योजना सहायक सिद्ध होती है। जैसे - यह मणि है, प्रकाशमान है, शुक्लवर्ण, बहुमूल्य है, आदि । मणिगत, इन स्वधर्मों को भी युगपत (एकसाथ) कहना शक्य नहीं । "स्यात्' जिसका अर्थ कथंचित् (किसी एक अपेक्षादृष्टिकोण से) होता है, इस अनेक धर्मों की अभिव्यक्ति में साहाय्यकारी होता है। स्यात् यह प्रकाशमान है, स्यात् यह बहुमूल्य है। पदार्थ के इस स्यात् पद के सात भंग हैं । इन भंगों को “सप्तभंग' कहते हैं । स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्याद्वक्तव्य इत्यादि आपेक्षिक भंगों द्वारा पदार्थ स्थित अनेकान्त को स्फुट करना सप्तभंग का विषय है। इस अनेकान्त दर्शन से मनुष्य में सद्विचार का आविर्भाव होता है और पूर्वाग्रह अथवा एकान्त हठवाद का अन्त हो जाता है। अनेकान्त दृष्टिमान् यह विचारता है कि पदार्थ में एकमात्र वही गुणधर्म नहीं है, जिसे मैं जानता हूँ, अपितु दूसरा व्यक्ति उसमें जिस अपर गुण की स्थिति बता रहा है, वह भी उसमें है। यह विचारों की प्रांजलता, दर्शन की व्यापकता तथा सहिष्णुता को प्रसारित कर समन्वय मार्ग को प्रशस्त करता है। जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से विश्व को देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की, इसलिए वह न अद्वैतवादी बना और न द्वैतवादी। उसकी धारा स्वतंत्र रही। फिर भी उसने दोनों कोणों को स्पर्श किया । अनेकान्त दृष्टि अनन्त नयों की समष्टि है। उसके अनुसार कोई भी एक नय पूर्ण सत्य नहीं है और कोई भी नय असत्य नहीं है। वे सापेक्ष होकर सत्य होते हैं और निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। हम संग्रहनय की दृष्टि से देखते हैं तब सम्पूर्ण विश्व अस्तित्व के महास्कंध में अवस्थित होकर एक हो जाता है। इस नय की सीमा में द्वैत नहीं होता, चेतन और अचेतन का भेद भी नहीं होता, द्रव्य और गुण तथा शाश्वत और परिवर्तन का भेद नहीं होता है। सर्वत्र अद्वैत ही अद्वैत । विश्व को देखने का यह एक नय है। उसे देखने के दूसरे भी नय हैं। हम व्यवहार-नय से देखते हैं तब विश्य अनेक खण्डों में दिखाई देता है। इस नय की सीमा में चेतना भी है और अचेतन भी है, द्रव्य भी है और गुण भी है, शाश्वत भी है और परिवर्तन भी है। सत्य की व्याख्या किसी एक नय से नहीं हो सकती । वह अनन्तधर्मा है। उसकी व्याख्या अनन्त नयों से ही हो सकती है। हम कुछेक नयों को ही जान पाते हैं, फलत: सत्य के कुछेक धर्मों की ही व्याख्या कर पाते हैं । कोई भी शास्त्र सम्पूर्ण सत्य की व्याख्या नहीं कर पाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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