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________________ १९२ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि जीवों को शान्ति प्रदान करने की यह शीतल मन्दाकिनी है। यह मोह-महारोग को निर्मूल कर आध्यात्मिक जीवन प्रदान करने वाली संजीवनी है। श्री हरिभद्रसूरि ने ‘अष्टक प्रकरण' में सामायिक के निम्नलिखित लक्षण बताये हैं : समता सर्व भूतेषु, संयमः शुभ भावना । ___ आर्त रौद्र परित्यागस्तद्दि सामायिकं व्रतम् ॥ 'सब जीवों पर समता-समभाव रखना, पाँच इन्द्रियों का संयम नियंत्रण करना, अन्तहृदय में शुभ भावना शुभ संकल्प रखना, आर्त-रौद्र दुानों का त्याग कर धर्म-शुक्ल ध्यान का चिन्तन करना सामायिक व्रत है । तत्त्व दर्शन की दृष्टि से “सामायिक' के स्वरूप में जैन धर्म का उच्चतम दर्शन समाया हुआ है तथा स्थूल क्रिया-विधि की दृष्टि से ‘सामायिक' जैन धर्म का एक उत्तम आध्यात्मिक अनुष्ठान है। समत्व की साधना करने के लिए सामायिक एक सर्वोत्तम साधन है और इसी लिए सामायिक जीव को मोक्षगति प्राप्त कराने का सामर्थ्य रखता है। ___ तत्व-दर्शन की द्रष्टि से सामायिक' के स्वरुप में जैन धर्म का उच्चत्तम दर्शन समाया हुआ है तथा स्थूल क्रिया विधि की द्रष्टि से ‘सामायिक' जैन धर्म का एक उत्तम आध्यात्मिक अनुष्ठान है। समत्व की साधना करने के लिये सामायिक एक सर्वोत्तम साधन है और इसलीये सामायिक जीव को मोक्ष गति प्राप्त कराने की सामर्थ्य रखता है। भगवती सूत्र में कहा भी गया है कि ‘सामायिक ते हि ज आत्मा' सामायिक ही आत्मा समत्व या समता का विकास करने के लिए जैन धर्म में विविध साधनाए बताई गई हैं। विविध प्रकार के तप-त्याग, विधि-विधान, नियमोपनियम, व्रत-प्रत्याख्यान, स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाएँ समता की आराधना के लिए ही हैं। हमारी दैनिक क्रिया-प्रतिक्रमण सामायिक आदि का उद्देश्य भी समता को परिपुष्ट बनाना है। इन क्रियाओं द्वारा यदि समभाव-समता का विकास होता है तो वे सफल कही जाती हैं। यदि इनके करते रहने पर भी समता न आई तो इन क्रियाओं की सफलता नहीं मानी जा सकती । जब व्यक्ति क्रोधादि कषायों को शमित करता है, जब वह संसार के सब जीवों को अपने समान समझने लगता है तो वह स्वमेव सब प्रकार के पापों से, क्लेशों से, संघर्षों से बच जाता है, वह अपने आपमें अभूतपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है। वह सर्वथा निराकुल और शान्त बन जाता है । वह सब द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है । यह द्वन्द्व-मुक्ति ही समता की श्रेष्ठ साधना है। इस तरह समता-दर्शन व्यक्ति के जीवन को दु:ख-मुक्त बनाता है, निराकुल बनाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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