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________________ १६८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि उसे प्राप्त करने के लिए आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग और शुभ भाव अपनाना अति आवश्यक है। उसकी प्राप्ति के लिए संयम की आवश्यकता है । यदि सावद्य का अर्थात् पापमय प्रवृत्तियों का अर्थात मन, वचन और काया के अशुभ उपयोगों का त्याग किया जाय तो अशुभ ध्यान कम हो जाय और जीव संयमित हो जाय । इसके लिए यदि गृहस्थ प्रत्य क्रिया रूप से एक मुहूर्त के लिए भी पच्चकखाण लेकर एक आसन पर बैठ जाय तो उसे 'सामायिक व्रत' कहा जाता है। . किसी भी व्यक्ति के मन में ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जैन धर्म का तारतम्य क्या ? राग-प्रेम से मुक्ति पाकर मोक्ष गति प्राप्त करना यही जैन धर्म का तारतम्य है। रागद्वेष से मुक्ति किस प्रकार उपलब्ध हो ? इसका उत्तर है समता की साधना से । इसीलिए समता जैन धर्म का जिन प्रवचन का तारतम्य है। और सामायिक है समता-साधना का माध्यम । अतः ऐसा कहा गया है कि 'सामायिक' तो है जिन-प्रवचन का, भगवान के बोध का, द्वादशांगी का, चौदह पूर्व का सार है। विशेषावश्यक भाष्य में जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण ने सामायिक को चौदह पूर्व का तारतम्य कहा है । दृष्टान्त रूप से : सामाइयं संखेवो चोदस पूव्वत्थ पिडो त्ति ।' महर्षियों ने नवकार-मंत्र की तरह सामायिक को भी चौदह पूर्व के तारतम्य जैसा बतलाया है। उसी के प्रकार 'तत्वार्थ-सूत्र' की अपनी टीका में उपाध्यायजी श्री यशोविजय जी महाराज ने सामायिक को द्वादशांगी के उपनिषद के रूप में बताया है । सकल द्वादशाङ्गोपानिषद भूत सामायिक सूत्रवत् । पूर्वजन्म की ऐसी आराधना के कारण सभी तीर्थंकर परमात्मा स्वयंबुद्ध ही होते हैं। गृहस्थ-वास का त्याग करने के बाद जब वे दीक्षित होते हैं तब उन्हें किसी गुरु महाराज के पास दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं होती। उनके कोई गुरु नहीं होते। वे तो गृहस्थ वेश को त्याग कर पंचमुष्टि लोचन कर स्वयं दीक्षित होते हैं । वे तो सिद्ध भगवन्तों को और अपने आत्मा को साक्षी रखकर सावध योग के पच्चक्खाण लेकर यावज्जीवन सामायिक करते हैं। अपनी गृहस्थावस्था में उनके पास मति, श्रुत और अवधिज्ञान होते ही हैं। स्वयं दीक्षित होते १. विशे. भा. गा. २७९६ २. तत्त्वार्थ-टीका, प्रथम अध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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