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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १६१ शिष्टाचार - शिष्ट आचारही शिष्टाचार कहा जाता है । शिष्ट शब्द की व्याख्या करते हुए वशिष्ठ धर्म सूत्र में कहा है कि जो स्वार्थमय कामनाओं से रहित है, वह शिष्ट है (शिष्टः पुनरकामात्मा) ' इस आधार पर शिष्टाचार का अर्थ होगा - निष्काम भाव से किया जाने वाला आचार शिष्टाचार है अथवा नि:स्वार्थ व्यक्ति का आचरण शिष्टाचार है । ऐसा आचार धर्म का कारणभूत होने से प्रमाणभूत माना गया है। इस प्रकार यहाँ शिष्टाचार का अर्थ सामान्यतया शिष्टाचार से हम जो अर्थ ग्रहण करते है, उससे भिन्न है। शिष्टाचार निःस्वार्थ या निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म या सेवा की अवधारणा गीता में स्वीकृत है ही और उसे जैन तथा बौद्ध परम्पराओं मे भी पूरी तरह मान्य किया है। सदाचार - मनु के अनुसार ब्रह्मावर्त में निवास करने वाले चारों वर्गों का जो परम्परागत आचार है वह सदाचार है। सदाचार के तीन भेद हैं - १. देशाचार २. जात्याचार और ३. कुलाचार । विभिन्न प्रदेशों में परम्परागत रूप से चले आते आचार नियम ‘देशाचार' कहे जाते हैं। प्रत्येक देश में विभिन्न जातियों के भी अपने-अपने विशिष्ट आचार नियम होते हैं, ये ‘जात्याचार' कहे जाते है। प्रत्येक जाति के विभिन्न कुलों में भी आचारगत भिन्नताएँ होती हैं - प्रत्येक कुल की अपनी आचार परम्पराएँ होती हैं, जिन्हें कुलाचार' कहा जाता है। देशाचार, कुलाचार और जात्याचार श्रुति और स्मृतियों से प्रतिपादित आचार - नियमों के अतिरिक्त होते हैं। सामान्यतः हिन्दू धर्म शास्त्रकारों ने इसके पालन की अनुशंसा की है। यही नहीं, कुछ स्मृतिकारों के द्वारा तो ऐसे आचार नियम श्रुति, स्मृति आदि के विरुद्ध होने पर भी पालनीय कहे गये हैं। बृहस्पति का तो कहना है - बहुजन और चिरकालमानित देश, जाति और कुल के आचार (श्रुति विरुद्ध होने पर भी) पालनीय हैं, अन्यथा पूजा में क्षोभ उत्पन्न होता है और राज्य की शक्ति और कोष क्षीण हो जाता है। याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किये है : १. संस्कार, २. वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम, ३. विवाह (पति-पत्नी के कर्त्तव्य), ४. चार वर्णों एवं वर्णशंकरों के कर्त्तव्य, ५. ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य, ६. विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर पालनीय नियम, ७. भोजन के नियम, ८. धार्मिक पवित्रता, ९. श्राद्ध १०. गणपति पूजा, ११. गृहशान्ति के नियम १२. राजा के कर्त्तव्य आदि। १. वशिष्ट - धर्मसूत्र १/६ २. मनुस्मृति २/१७ - १८ ३. हिन्दू धर्मकोश, पृ० ६२५ ४. हिन्दू धर्मकोश पृ०७४-७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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