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________________ १५७ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय - निश्रित है। मात्र शील से ही विशुद्धि होती है इस प्रकार की दृष्टि से पाला गया शील दृष्टि - निश्रित है। तृष्णा-निश्रित और दृष्टि-निश्रित दोनों प्रकार के शील निम्न कोटि के हैं। तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय से रहित शील अनिश्रित-शील है। यही अनिश्रित-शील निर्वाण मार्ग का साधक है। ३. कालिक आधार पर शील दो प्रकार का है। किसी निश्चित समय तक के लिए ग्रहण किया गया शील कालपर्यत्न-शील कहा जाता है जबकि जीवन-पर्यन्त के लिए ग्रहण किया गया शील आप्राणकोटिक शील कहा जाता है। जैन परम्परा में इन्हें क्रमश: इत्वरकालिक और यावत्कथित कहा गया है। ४. सपर्यन्त और अपर्यन्त के आधार पर शील दो प्रकार का है। लाभ, यश, जाति अथवा शरीर के किसी अंग एवं जीवन की रक्षा के लिए जिस शील का उल्लंघन कर दिया जाता है वह सपर्यन्त शील है। उदाहरणार्थ, किसी विशेष शीलनियम का पालन करते हुए जाति-शरीर के किसी अंग अथवा जीवन की हानि की सम्भावना को देखकर उस शील का त्याग कर देनां । इसके विपरीत जिस शील का उल्लंघन किसी भी स्थिति में नहीं किया जाता, वह अपर्यन्त शील है। तुलनात्मक दृष्टि से ये नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष पक्ष हैं। जैन परम्परा में इन्हें अपवाद और उत्सर्ग मार्ग कहा गया है। (५) लौकिक और अलौकिक के आधार पर शील दो प्रकार का है। जिस शील का पालन सामाजिक जीवन के लिए होता है और जो साम्रव है, वह लौकिक शील है । जिस शील का पालन, निर्वेद, विराग और विमुक्ति के लिए होता है और जो अनास्रव है वह लोकोत्तर शील है। जैन परम्परा में इन्हें क्रमश: व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र कहा गया है। शील का विविध वर्गीकरण ___ शील का त्रिविध वर्गीकरण पाँच त्रिकों में किया गया है - १. हीन, मध्यम और प्रणीत के अनुसार शील तीन प्रकार का है। दूसरों की निन्दा की दृष्टि से अथवा उन्हें हीन बताने के लिए पाला गया शील हीन है। लौकिक शील या सामाजिक नियम - मर्यादाओं का पालन मध्यम शील है और लोकोत्तर शील प्रणीत है। एक दूसरी अपेक्षा से फलाकांक्षा से पाला गया शीलं हीन है। अपनी मुक्ति के लिए पाला गया शील मध्यम है और सभी प्राणियों की मुक्ति के लिए पाला गया पारमिता-शील प्रणीत है। १. विसुद्धिमग्ग, पृ० १५-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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