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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १५३ का समावेश है । व्यवहारचारित्र भी दो प्रकार का है - १. सम्यक्त्वाचरण और २. संयमाचरण। व्यवहार - चारित्र के प्रकार : चारित्र को देशव्रती चारित्र और सर्वव्रती चारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रती चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ उपासकों से और सर्वव्रती चारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन - परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूल गुण, षट्कर्म, बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन आता है। श्वेताम्बर परम्परा में अष्टमूल गुणों के स्थान पर सप्तव्यसन त्याग एवं ३५ मार्गानुसारी गुणों का विधान मिलता है। इसी प्रकार उसमें षट्कर्म को षड़ावश्यक कहा गया है। श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन निषेध, पंचसमिति, तीनगुप्ति, दस यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषह, अह्ह्वाइस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन उपलब्ध है। चारित्र का चतुर्विध वर्गीकरण : ___ स्थानांगसूत्रमें निर्दोष आचरण की अपेक्षा से चारित्र का चतुर्विध वर्गीकरण किया गया है । जैसे घट चार प्रकार के होते हैं वैसे ही चारित्र भी चार प्रकार का होता है। घट के चार प्रकार है - १. भिन्न (फूटा हुआ), २. र्जजरित, ३. परिस्रावी और, ४. अपरिसावी । इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का होता है - १. फूटे हुऐ घड़े के समान : अर्थात् जब साधक अंगीकृत महाव्रतों को सर्वथा भंग कर देता है तो उसका चारित्र फूटे घड़े के समान होता है। नैतिक दृष्टि से उसका मूल्य समाप्त हो जाता २. जर्जरित घट के समान : सदोष चारित्र जर्जरित घट के समान होता है। जब कोई मुनि ऐसा अपराध करता है जिसके कारण उसकी दीक्षा-पर्याय का छेद किया जाता है तो ऐसे मुनि का चारित्र जर्जरित घट के समान होता है । ३. परिस्रावी : जिस चारित्र में सूक्ष्म दोष होते हैं वह चारित्र परिस्रावी कहा जाता है। ४. अपरिस्रावी : निर्दोष एवं निरतिचार चारित्र अपरिस्रावी कहा जाता है।' चारित्र का पंचविध वर्गीकरण : २ तच्वार्थसूत्र (९।१८) के अनुसार चारित्र पाँच प्रकार का है - १. सामायिक चारित्र, २. छेदोपस्थापनीय चारित्र, ३. परिहारविशुद्धि चारित्र, ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र और ५. यथाख्यात चारित्र। १. स्थानांग , ४/५९५ २. तत्त्वार्थ सूत्र, आचार्य उमास्वाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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