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________________ समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ १०७ ४. माध्यस्थ्य-भावना समतायोग को परिपुष्ट करने वाली चतुर्थ भावना है ... माध्यस्थ्य-भावना। आचार्य श्री अमितगति ने इसका उल्लेख किया है ... "माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु, देव !" 'है जिनेन्द्रदेव ! जो जीव धर्म से विपरीत आचरण करने वाले हैं; पापी दुष्ट और शत्रुवृत्ति वाले है; उनके प्रति सदा मेरी आत्मा राग-द्वेषरहित माध्यस्थ्य भाव धारण करे ।' प्रश्न होता है, समत्व योग का माध्यस्थ्य भाव के साथ क्या सम्बन्ध है? माध्यस्थ्य- भावना समत्वयोग में क्या विशेषता पैदा करती है ? गहराई में उतरकर देखा जाए तो माध्यस्थ्य और समता दोनों अभिन्न हैं; माध्यस्थ्य कारण है, समता कार्य है। माध्यस्थ्य-भाव हृदय में उत्पन्न होता है, तभी समत्व सार्थक होता है। आचार्यों ने माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहता, वीतरागता आदि एकार्थवाचक शब्द माने हैं। आचार्य मलयगिरि ने मध्यस्थ का अर्थ करते हुए कहा "मध्यस्थः समः य आत्मानमिव परं पश्यति ।" मध्यस्थ का अर्थ सम है, राग और द्वेष से रहित, वह अपनी आत्मा की तरह ही दूसरों को देखता है । मध्यस्थ का भाव या क्रिया माध्यस्थ्य है। और सामायिक (समतायोग) का भी यही लक्षण किया गया है - राग-द्वेष से सर्वथा तटस्थ रहना सम है, समत्व की प्राप्ति की क्रिया सामायिक है । दीर्घदृष्टि से देखा जाए तो साम्य और माध्यस्थ्य में कोई खास अन्तर नहीं है। माध्यस्थ्य-भाव रूपी जल न हो तो समता सूखी नदी के समान हो जाती है। समत्व के दीपक को प्रज्वलित रखते हुए माध्यस्थ्य को यह निर्णय करना पड़ता है कि यह व्यक्ति अगर नहीं मानता है तो भी इसके प्रति न उपेक्षा रखी जाए, न उसकी प्रशंसा की जाए, न निन्दा, न उसे बढ़ाव दिया जाए, न उसे बदनाम करके गिराया जाए । यह विवेकपूर्वक निर्णय करना माध्यस्थ्य का कार्य है। इसलिए माध्यस्थ्य-भाव को मैं समतायोग के मस्तिष्क की भूमिका अदा करनेवाला कहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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