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________________ हे नाथ ! आप सिद्धत्व स्वरूप फल वाले केवल देह युक्त हैं। मैं ज्ञान आदि के फल सिद्धत्व के यथावस्थित स्मरण से भी रहित हैं। अत: मैं क्या करूं ? इस विषय में मैं जड़ (मढ़) हूं। मुझ पर कृपा करके आप मुझे करने योग्य विधि बताने की कृपा करें। (८) चौदहवां प्रकाश मनोवचःकाय-चेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम् ॥१॥ मन, वचन, काया की सावद्य चेष्टाओं का सर्वथा परित्याग करके आपने स्वभाव से ही (शिथिलता से ही) मन रूपी शल्य को दूर किया है । (१) संयतानि न चाक्षाणि, नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥२॥ हे प्रभु ! आपने बल पूर्वक इन्द्रियों को नियन्त्रित नहीं की तथा लोलुपता से उन्हें स्वतन्त्र भी नहीं छोड़ी, परन्तु यथावस्थित वस्तु तत्त्व को अंगीकार करने वाले आपने सम्यक् प्रकार से कुशलता पूर्वक इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है । (२) योगस्याष्टाङ्गता ननं, प्रपञ्चः कथमन्यथा ? । पाबालभावतोऽप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥ हे योग रूपी समुद्र का पार पाये हुए भगवन् ! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अङ्ग बताये गये हैं । वे केवल प्रपंच (विस्तार) प्रतीत होते हैं, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो तो आपको बाल्यावस्था से ही ये योग स्वाभाविक रीति से ही क्यों प्राप्त हों ? अर्थात यह योग प्राप्ति का क्रम सामान्य योगियों की अपेक्षा से है। आप तो योगियों के भी नाथ हैं, अतः आपके लिये ऐसा होने में कोई आश्चर्य नहीं है । (३) विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । __ योगे सात्म्यदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥४॥ दीर्घकाल से परिचित विषयों के प्रति भी आपको वैराग्य है और कदापि नहीं देखे हुए योग के लिये तन्मयता है। हे स्वामी ! आपका यह चरित्र कोई अलौकिक है । (४) जिन भक्ति ] [ 95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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