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________________ अनुक्षित - फलोदग्रा -दनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रो, -स्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥५॥ समस्त वृक्ष जल-सिंचन से ही समय पर फल देते हैं, गिरने पर ही अत्यन्त बोझ वाले होते हैं और प्रार्थना करने से ही वांछित वस्तु प्रदान करते हैं, परन्तु आप तो सिंचन किये बिना ही उदग्र-परिपूर्ण फल-दायक, गिरे बिना ही अर्थात् स्व-स्वरूप में रहने से ही गौरवपूर्ण तथा प्रार्थना किये बिना ही वांछित प्रदान करने वाले हैं । ऐसे (अपूर्व) कल्प-वृक्ष स्वरूप मापसे मैं फल प्राप्त करता हूँ। (५) प्रसङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्त्रातु -रनस्तेऽस्मि किङ्करः ॥६॥ इस श्लोक में परस्पर विरुद्ध विशेषण बताये हैं। जो संगरहित होता है वह लोक का स्वामी नहीं होता, जो ममता रहित हो वह किमी पर कृपा नहीं करता और जो मध्यस्थ-उदासीन हो वह अन्य की रक्षा नहीं करता; परन्तु आप तो समस्त संग के त्यागी होते हुए भी जगत् के लोगों के द्वारा सेव्य होने के कारण जनेश हैं, ममता रहित होते हुए भी जगत् के समस्त प्राणियों पर कृपा करने वाले हैं, राग-द्वेष का नाश किया हुआ होने से मध्यस्थ - उदासीन होते हुए भी एकान्त हितकारी धर्म का उपदेश देने से संसार से त्रस्त जगत् के जीवों के रक्षक हैं। उपर्युक्त विशेषणों से युक्त चिन्ह - कुग्रह रूपी कलंक रहित प्रापका मैं सेवक हूँ। (जो सेवक होता है वह तलवार, बन्दूक आदि किसी चिन्ह से युक्त होता है ।) (६) अगोपिते रत्ननिधा -ववते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयापितः ॥७॥ नहीं छिपाये हुए रत्न के निधि के समान, कर्मरूपी बाड से अपरिवृत कल्पवृक्ष के समान और अचिन्तनीय चिन्तामणि रत्न के समान आपको (आपके चरण-कमलों में) मैंने अपनी यह आत्मा समर्पित कर दी है। (७) फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किंकर्तव्यजडे मयि ॥८॥ 94 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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